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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

पारस कुछ देर सोचता रहा और फिर बोला—‘जैसा आप उचित समझें, मुझे तो कोई आपत्ति नहीं, मुझे तो इस समय कोई दृढ़ आश्रय चाहिये…वह न सही आप सही।’

‘तो ठीक है…कल मेरे ऑफिस में चले आइए…अप्वाइंटमेंट लैटर आपको तैयार मिलेगा, अभी आरंभ में मैं आपको पांच सौ रुपये दूंगा। यह लीजिये मेरा कार्ड।’

पारस ने कृतज्ञ दृष्टि से पहले द्वारकादास को और फिर नीरा को देखा और उसके हाथ से कार्ड ले लिया।

द्वारकादास दोनों को वहीं छोड़कर पार्टी में जाने के लिए तैयार होने को अपने कमरे में चला गया। पारस कार्ड लेकर सोच ही रहा था कि किन शब्दों में नीरा के इस उपकार का धन्यवाद करे कि नीरा ने पूछा—

‘आप चुप क्यों हो गये?’

‘नहीं तो।’ उसने कुछ झेंपते हुए कहा।

‘शायद आपको यह अच्छा नहीं लगा।’

‘नहीं ऐसी बात नहीं…मैं सोच रहा था आपने अचानक मुझ पर इतना महान उपकार क्यों कर दिया?’

‘उपकार तो आपने किया है हम पर कि मिली हुई नौकरी को ठुकराकर मेरी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया है।’

‘मिस नीरा। क्षमा कीजिए—।’ पारस ने उसकी ओर न देखते हुए गर्दन झुकाकर कहा—‘वास्तव में उस काम के लिए मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं हुई।’

‘पर आप तो…।’

‘मैंने आपसे झूठ कहा था।

‘क्यों? इसकी आवश्यकता थी?’

‘शायद आपके उपकारों और आपकी कृपा का बोझ उठाने का मुझमें साहस न था।’ पारस की यह कहते हुए आवाज भर्रा गई।

नीरा क्षणभर उसे देखकर कुछ सोचती रही और फिर बोली—

‘अच्छा ही हुआ जो वह काम नहीं मिला, नहीं तो आप कहां मिलते…अब अंकल से यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं…कल से अपना काम संभाल लीजिए।’

पारस उससे विदा लेकर चला गया। उसने अपने मान को रखने के लिए छोटा-सा झूठ बोला और उसका वर्णन करते हुए भावुकता से उसकी आवाज भर्रा गई थी। उसने नीरा से कुछ भी नहीं छिपाया…और हम? नीरा सोचने लगी, हम उससे इतना भयनाक धोखा करने जा रहे हैं…यह कपट का जाल…इस विचार ने उसके प्रफुल्लित मन पर घनी परछाईयां डाल दीं और वह कांप-सी गई।

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