ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘एक फोटोग्राफर की दुकान पर…कह रहा था कि नौकरी की खोज में बम्बई आया हूं।’
‘तुमने कैसे जान लिया इतना शीघ्र कि वह विश्वासी हो सकता है?’
‘उसकी सूरत से।’ नीरा ने भोलेपन से उत्तर दिया।
‘सूरत से…तुम्हें कई बार समझाया है सूरतों पर मत जाया करो…व्यक्ति का चेहरा सदा धोखा देता है।’
नीरा चुप हो गई और कुछ देर बाद अपने कमरे में आ गई। अंकल ने उसकी प्रार्थना ठुकराकर उसका मन दुःखी कर दिया था। न जाने क्यों उसे पारस से अत्यधिक सहानुभूति हो गई थी। वह चाहती थी कि कोई ऐसा साधन बन जाए जिससे वह उसके निकट रह सके…इस ऐश्वर्य के वातावरण से वह शायद ऊब गई थी…उसे कोई और साथी चाहिये था…कोई मन का मीत।
अपने पलंग पर लेटी-लेटी वह इसी विषय पर विचार कर रही थी कि द्वारकादास की जानी पहचानी विलासमय आहट ने उसकी विचारधारा को भंग कर दिया। उसने चुपचाप लेटे-लेटे अपना मुंह दीवार की ओर कर लिया। द्वारकादास टेबललैम्प के धुंधले प्रकाश में उसके समीप बैठ गया और उसके बालों को छूते हुए बोला, ‘नीरू…।’
‘हूं…।’ नीरा ने बिना आंखें खोले बेध्यानी से उत्तर दिया।
‘जानती हो…आज तुम्हारे लिए एक नई कार बुक करा दी है।’
‘तो क्या करूं?’ नीरा के स्वर में एक अनोखा रूखापन था।
‘एक बार मेरी ओर देख तो लो…।’ द्वारकादास का हाथ उसके बालों से खेलता हुआ कपोलों तक आ गया। नीरा उठकर पलंग पर बैठ गई। वह अभी तक अप्रसन्न थी।
‘हां। क्या नाम बताया था उस व्यक्ति का?’ द्वारकादास ने उसे प्रसन्न करने के लिए पूछा।
‘कौन?’
‘वही…जिसकी तुम सिफारिश कर रही थीं।’
‘पारस…।’
‘नाम तो बुरा नहीं, देखने में कैसा है?’
‘वह भी बुरा नहीं…बहुत अच्छा है।
‘शिक्षा…।’
‘ग्रेजुएट है।’
‘तो वह शिक्षित भी है, देखने में भी अच्छा है, नौकरी की आवश्यकता भी है उसे…और तुम कहती हो भलामानस भी है।’
‘मैं क्या जानूं…आचार-विचार किसी के मुंह पर थोड़े लिखे रहते हैं।’ वह बिगड़ते हुए बोली।
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