ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा बड़ी देर तक प्रवेश द्वार की ओर देखती रही। उसने एक लम्बी सांस खींची और सोफे पर लेट गई। यह एक अनोखी प्रसन्नता थी एक नूतन अनुभव जिसका उसने प्रथम बार रसपान किया।
द्वारकादास रात देर से लौटा। नीरा ने आगे बढ़कर स्वयं उसके गले में बंधी टाई खोली और कोट उतारने में सहायता देने लगी।
‘तुम्हें मेरा कितना ध्यान रहता है नीरू…।’ नीरा के हाथ अपने हाथों में थामे हुए द्वारकादास बोला। नीरा के हाथ का स्पर्श करते ही उसके मुख पर मुस्कराहट दौड़ गई थी।
‘और आपका ध्यान किसे रहेगा…लाइये यह कोट और आप कुछ देर विश्राम कीजिये।’
‘क्यों?’
‘आप थके हुए हैं ना।’
‘यह तुमने कैसे जाना?’
‘अब तक आपके समीप रहते हुए यह भी न जान पाऊं तो फिर क्या…?’
द्वारकादास ने प्यार से नीरा के चुटकी ली। नौकर चाय की ट्रे मेज पर रखकर चला गया, नीरा ने बढ़कर एक प्याला चाय बनाई और द्वारकादास को देते हुए बोली—
‘अंकल…जब से आपने भोंसले को दफ्तर से अलग किया है आपका काम बहुत बढ़ गया है…।’
‘और करूं भी क्या…किसी और के वश का काम भी तो नहीं…स्वयं ही सिर मारना पड़ता है।’
‘आप दूसरा मैनेजर क्यों नहीं रख लेते…?’
‘कोई विश्वासी और अनुभवी व्यक्ति मिलना इतना सरल नहीं…मनचाहा आदमी खोजते हुए समय लगेगा।’
‘आप चाहें तो मैं आपकी यह समस्या सुलझा दूं।’
‘क्या?’
‘एक भला मानस और विश्वासी व्यक्ति तो है मेरी दृष्टि में—रही अनुभव की बात वह आप समझें…।’
‘कौन है वह?’ द्वारकादास ने झट पूछा।
‘पारस खन्ना…।’
‘पारस?’ उसने कुछ बौखलाहट में यह नाम दोहराया।
‘जी…वही युवक जो उस रात में मेरे साथ टैक्सी पर आया था।’
‘कहां मिला वह तुम्हें?’ द्वारकादास ने शंकामय दृष्टि से नीरा की ओर देखा।
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