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कटी पतंग

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :427
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9582
आईएसबीएन :9781613015551

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एक ऐसी लड़की की जिसे पहले तो उसके प्यार ने धोखा दिया और फिर नियति ने।


अंजना की आंखों से आग बरस रही थी। आज वह अपनी सारी मजबूरियों को सदा के लिए भस्म कर डालना चाहती थी और इसीलिए वह जलती लकड़ी लिए घायल शेरनी की तरह उस शिकार की ओर बढ़ रही थी जिसने उसका जीना हराम कर दिया था।

अब वह सचमुच उससे डरने लगा और तेज़ी से पीछे हट गया। साथ ही साथ वह गिड़गिड़ाने भी लगा- ''पागल तो नहीं हुई हो! अरे! अरे! यह क्या नादानी है! ऐसा मज़ाक भी कोई करता है!''

''यह मज़ाक नहीं है कमीने! एक विवश नारी की आग है जो तुम्हें भस्म कर देगी।'' और वह उसकी ओर झपटी।

अंधेरे कमरे में पीछे हटते हुए वह एक-दो बार कुर्सियों से टकराया। वह वहां से बच निकलने की कोशिश कर रहा था, लेकिन अंजना उसे अवसर नहीं दे रही थी। वह आज उसका मनहूस चेहरा दाग देने पर तुल गई थी। उसने आगे बढ़कर जलती लकड़ी से एक भरपूर वार किया लेकिन बनवारी बड़ी फुर्ती से वह वार बचाकर एक खुली खिड़की के पास जा पहुंचा। वह उस खिड़की से निकल भागना चाहता था और अभी वह अपने पर तौल ही रहा था कि अंजना ने बढ़कर वह लकड़ी उसके चेहरे से चिपका दी। एक चीख फे साथ वह डगमगा गया और बाहर छत पर जा गिरा।

छत ढलवान थी इसलिए वह लुढ़कता हुआ नीचे बागीचे में जा गिरा। उसके गिरने से धमाका हुआ और साथ ही बागीचे में खुले कुत्तों ने भूंकना शुरू कर दिया। कोठी के नौकर बाहर आ गए। शोर सुनकर डिप्टी साहब भी अपनी बंदूक लिए निकले और फिर बहू के कमरे की और बढ़ गए।

अंजना उन आवाज़ों को सुनकर दहल गई। उसने दूर बागीचे के अंधेरे में बनवारी को भागते देखा जो झील की ओर गुम हो गया। कुत्ते दूर तक उसका पीछा करते चले गए। उसने हाथ में पकड़ी हुई लकड़ी को झट से आतिशदान में फेंक दिया और दरवाज़ा खोल दिया।

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