ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
दूसरी साँझ ठाकुर बाबा पार्वती को साथ लिए ठीक समय पर हरीश के घर पहुँच गए, पार्वती आज भी अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहने थी। हरीश व माधो पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में थे और उन्हें देख अत्यंत प्रसन्न हुए। इनके अतिरिक्त दो व्यक्ति वहाँ और बैठे थे जो वादी में किसी खोज के बारे में आये थे। उनका विचार था कि इन पहाड़ियों में कहीं न कहीं तेल है, परंतु बहुत खोज के बाद उनको कोई चिह्न अभी तक न मिला था। हरीश ने दोनों का परिचय बाबा और पार्वती से कराया। इनमें से एक तो पार्वती के पिता के गहरे मित्र थे। अतः चाय के साथ-साथ भी बहुत देर तक उनकी ही बातें होती रहीं।
चाय के बाद बाबा उन दो अतिथियों को ले बाहर गैलरी में जा बैठे और दूर से पहाड़ी की चोटी पर जमी बर्फ को देखने लगे। पार्वती कुर्सी छोड़ दूसरे कमरे में चली गई और दीवार पर लगे चित्रों को ध्यानपूर्वक देखने लगी। सामने मेज पर रखे फूलदान को देख वह रुकी व अपने कोमल हाथों से फूलों को छूने लगी। ज्यों ही उसने उसमें लगे लाल गुलाब को छुआ तो उसके कानों में किसी का स्वर सुनाई पड़ा।
‘शायद तुम्हें फूलों से बहुत प्रेम है?’ पार्वती चौंक उठी। घूमकर देखा तो हरीश खड़ा था। पार्वती ने अपनी साड़ी को सामने से ठीक करते हुए उत्तर दिया –‘जी।’ और अपनी उंगलियाँ फूलों से हटा मेज के किनारे रख लीं। हरीश ने लाल फूल फूलदान से तोड़ा और मुस्कुराते हुए पार्वती को भेंट किया। पार्वती ने एक बार हरीश को देखा। हरीश ने काँपते हाथों से फूल खींचते हुए कहा, ‘ठहरो मैं स्वयं लगा देता हूँ।’ ज्यों ही उसने फूल पार्वती के बालों में लगाया कि मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। पार्वती काँप उठी। फूल बालों से निकलकर धरती पर आ गिरा। हरीश ने झुककर फूल उठा लिया और बोला -
‘क्यों क्या हुआ?’
‘यूँ ही देवता का स्मरण हो आया।’
‘जी, साँझ की पूजा। मैंने समझा शायद मेरे फूल लगाने...।’
‘नहीं तो।’ और पार्वती ने मुस्कुराते हुए हरीश के हाथ से फूल ले लिया और दोनों गैलरी में जा ठहरे। पार्वती के कानों में मंदिर की घंटियों के शब्द गूंज रहे थे और मन में राजन का ध्यान।
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