ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘तुम्हारे होते जाड़ा इतना साहस नहीं कर सकता कि मुझे छू भी ले।’
‘तो क्या मैं कम्बल हूँ अथवा कोट, जो मुझे ओढ़ लोगे?’
‘तुम्हें तो देखते ही जाड़ा दूर हो जाता है। यदि ओढ़ लूँ तो शरीर जलने लगे।’
‘तो मैं आग हूँ।’
राजन बर्फीली ढलानों पर बैठ गया और पार्वती का हाथ खींच उसे अपने समीप बैठा लिया। पार्वती शाल संभालते हुए बोली -
‘कैसी होती है यह मिठास?’
राजन ने चुंबन के लिए अपने होंठ बढ़ाए और कहा –‘ऐसी।’ परंतु पार्वती ने किनारे से बर्फ उठा उसके मुँह पर रख दी, फिर हँसते-हँसते मुँह फेर लिया। राजन ने उसे जोर से खींचा, परंतु बर्फ की ढलान पर फिसल गया। पार्वती भी लड़खड़ाती हुई उसके साथ नीचे की ओर लुढ़क पड़ी।
अब राजन जोरों से हँस रहा था और पार्वती डर के मारे चिल्ला रही थी। जब थोड़ी ही देर में दोनों लुढ़कते हुए बर्फ के ढेर पर गिरे और पार्वती ने देखा तो राजन उस पर झुका मुस्कुरा रहा था। किसी की आँखों में कोई उलाहना न थी। उन आँखों में था स्नेह भरा उल्लास।
राजन बर्फ के ढेर से उठा और पार्वती को भी हाथ पकड़कर उठाया। दोनों उसी ढलान पर फिर से चढ़ने लगे। सूर्य अस्ताचल में जा चुका था, परंतु अभी अंधेरा होने में कुछ देर थी। दोनों बिल्कुल चुप थे। बीच-बीच में एक-दूसरे को देख भर लेते थे।
पार्वती ने जब घर के आँगन में पाँव रखा तो बाहर कोई न था। जाड़े के कारण सब किवाड़ बंद थे। पार्वती ने बरामदे में पहुँच कमरे का किवाड़ खोला। बाबा जलती अंगीठी के पास बैठे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। उन्होंने ऐनक नाक से हटाई और बोले -
‘क्यों पार्वती जाड़ा कैसा है?’
‘बहुत है बाबा।’
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