ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
पार्वती चिल्ला उठी और डर के मारे राजन की गर्दन में दोनों बाहें डालकर उससे जोर से लिपट गई।
बंद पहाड़ी में पटरी पर चलते डिब्बों का शोर जोर से गूँज रहा था। राजन ने उसे सीने से लगा लिया, दोनों के श्वास तेजी से चल रहे थे। दोनों चुपचाप थे परंतु गाड़ी का स्वर दोनों के दिल की धड़कनों से ताल मिला रहा था।
जब डिब्बे सुरंग से बाहर निकले तो दोनों चुपचाप एक-दूसरे से दूर बैठे हुए थे। राजन के होंठों पर एक शरारत भरी मुस्कुराहट थी, परंतु पार्वती सिर झुकाए बैठी थी। शायद यही प्रकाश उसे खाए जा रहा था और वह यही चाह रही थी कि अंधेरा फिर उसे अपनी काली चादर में छिपा ले, परंतु एक उजाला था, जो उसकी दृष्टि को ऊपर उठने ही न दे रहा था। पार्वती के चेहरे को हाथों से राजन ने अपनी ओर किया और कहने लगा - ‘क्यों चाँद मिला?’
‘मिला तो...!’ पार्वती ने राजन की ओर देखते हुए कहा और उसकी सजल आँखों में आँसू छलक पड़े।
‘कहाँ था?’
‘मेरे पास।’ पार्वती ने स्नेह भरी दृष्टि से राजन को देखा और उसे खींचकर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया, न जाने कितनी देर यौवन फूलों की गोद में सोया रहा। अचानक दोनों चौंक पड़े। गाड़ी के डिब्बे रुक गए, यहाँ ही उन डिब्बों की मंजिल का अंत था, परंतु राजन और पार्वती की मंजिल अभी दूर थी।
राजन पार्वती के साथ सामने सीमेंट के बने जंगल तक पहुँचा और वहाँ खड़े मनुष्य को कंपनी का पास दिखाया। पार्वती को देख उसने अधिक पूछताछ करना ठीक न समझा और लिफ्ट में चढ़ने की आज्ञा दे दी। इसी ‘लिफ्ट’ से मनुष्य को पहाड़ी की चोटी तक पहुँचाया और लाया जाता था।
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