ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
तीन
प्रतिदिन की तरह राजन आज भी अपने कार्य में संलग्न था। छुट्टी होने में अभी दो घंटे शेष थे। आज चार रोज से उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा था। इसका कारण वह मकान था जो मैनेजर ने राजन को कृपारूप में दिलाया था और राजन को लाचार हो, पार्वती का साथ छोड़ना पड़ गया था।
एक न एक दिन तो उसे छोड़ना ही था।
यह सोच-सोचकर वह मन को धीरज देता था और काम में जुट जाता था। उसे हर साँझ को बेचैनी से इंतजार होता, जब वह छुट्टी के बाद मंदिर की सीढ़ियों पर पार्वती से मिलता।
आज भी इसी धुन में पार्वती की प्रतीक्षा कर रहा था, पार्वती ने उसे आज नाव की सैर का वचन दिया था। वह प्रतिदिन पूजा के फूलों में एक लाल गुलाब का फूल भी लाती और जब मुस्कुराते हुए राजन को भेंट करती तो वह उसे प्रेमपूर्वक उसी के बालों में लगा देता। दोनों फूले न समाते थे।
ज्यों-ज्यों छुट्टी का समय निकट आ रहा था, राजन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। इतने में सामने से कुंदन आता दिखाई दिया। राजन काम छोड़ उसकी ओर लपका और बोला –
‘सुनाओ भाई! आज इधर कहाँ?’
‘तुम्हें तो समय ही नहीं – मैंने सोचा... मैं ही मिलता चलूँ।’
‘तुम जानते हो भइया मैं छुट्टी के पश्चात् घूमने चला जाता हूँ। जब लौटता हूँ तो थका-हारा बिस्तर पर पड़ जाता हूँ।’
‘कम से कम अपनी कुशल-क्षेम का समाचार तो देते रहा करो। यदि अकेले न होते तो इसकी आवश्यकता न रहती।’
‘तुम समझते हो मेरा कोई नहीं।’
‘कौन है जो... ओह! ठाकुर बाबा – उन्हें तो मैं भूल ही गया और बातों-बातों में यह भी भूल ही गया कि मैनेजर साहब ने तुम्हें बुलाया है।’
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