ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘आप भी यहीं।’
‘हाँ – इसी कंपनी में काम करता हूँ।’
‘कैसा काम?’
‘इतनी जल्दी क्या है? सब धीरे-धीरे मालूम हो जाएगा।’
‘अब जाओ – जाकर विश्राम करो। रास्ते की थकावट होगी।’
‘और आप।’
‘ड्यूटी!’
‘ओह... मेरी गठरी?’
‘जाकर काकी से ले लो – हाँ-हाँ वह तुम्हें पहचान लेंगी।’
‘अच्छा तो कल मिलूँगा।’
‘अवश्य! हाँ, देखो किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कुंदन को मत भूलना।’
काकी से गठरी ली और एक ओर चल दिया। वह गाँव को इस दृष्टि से देखने लगा कि रात्रि व्यतीत करने के लिए कोई स्थान ढूँढ़ सके। चाहे पर्वत की कोई गुफा ही क्यों न हो। आज वह बहुत प्रसन्न था। इसलिए नहीं कि उसे नौकरी मिलने की आशा हो गई थी, बल्कि इन पर्वतों में रहकर शांति भी पा सकेगा और अपनी आयु के शेष दिन प्रकृति की गोद में हँसते-हँसते बिता देगा। वह कलकत्ता के जीवन से ऊब चुका था। अब वहाँ रखा भी क्या था? कौन-सा पहलू था, जो उसकी दृष्टि से बच गया हो। सब बनावट ही बनावट – झूठ व मक्कार की मंडी।
वह इन्हीं विचारों में डूबा ‘वादी’ से बाहर पहुँच गया। उसने देखा – थोड़ी दूर पर एक छोटी-सी नदी पहाड़ियों की गोद में बलखाती बह रही है। उसके मुख पर प्रसन्नता-सी छा गई। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा नदी के किनारे जा पहुँचा और कपड़े उतारकर जल में कूद पड़ा।
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