ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
राजन के भीगे वस्त्रों से अभी तक पानी बह रहा था। उसने हाथों से पानी निचोड़ा और वैसे ही धरती पर औंधे मुँह लेटा रहा – शायद वस्त्र सुखाने के विचार से। उसका शरीर जाड़े के मारे काँप रहा था, आँखें लाल हो रही थी। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे ज्वर आया हो। उसका शरीर इतना भारी हो गया था कि वह भी महसूस करने लगा मानों अचेत-सा हुआ जा रहा हो – परंतु।
नदी के जल की कलकल, धूप और गर्मी और भीगे वस्त्र उसे विश्वास-सा दिला रहे थे कि अभी उसमें चेतना शेष है। अचानक वह चौंक उठा और शरीर समेट कर बैठ गया। उसके वस्त्र कुछ सूख चले थे। जाड़ा भी पहले से कम हो चुका था। उसने एक बार नदी की ओर देखा, फिर किनारे खड़ी नाव की ओर दृष्टि डाली – देखते ही भौचक्का-सा रह गया। शीघ्रता से उठ खड़ा हुआ और नाव की ओर लपका। नाव पर पार्वती सिर ऊँचा किए बैठी थी। वह बोला उठा - ‘पार्वती! तुम।’
पार्वती राजन की ओर एकटक देखती रही और राजन के प्रश्न का उत्तर दिया उसके आँसुओं ने।
राजन यह सब देखकर व्याकुल सा हो उठा और काँपते स्वर में बोला - ‘तुम यहाँ बैठी क्या कर रही हो?’
‘तुम्हारी प्रतीक्षा।’
‘वह क्यों?’
‘नदी के रास्ते मंदिर साथ जो जाना है।’
राजन उस समय यह अनुभव कर रहा था, मानो संसार भर का आनंद आज भगवान ने उसी के अंतर में उड़ेल दिया हो। उसकी भटकती हुई निगाहों में आशा की किरण झलक उठी। वह नाव को नदी में धकेल स्वयं भी उसमें सवार हो गया।
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