ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘यह सब कहने की बाते हैं – जानती हो इन फूलों का क्या होता है?’
‘क्या?’
‘पत्थर के देवताओं के चरणों में पड़े-पड़े अपने सौंदर्य को खो देते हैं।’
‘परंतु कुछ पाकर।’
‘क्या?’
‘शांति अथवा अंत।’
‘अंत ही कहो – सौंदर्य का अंत...।’
‘तो!’ पार्वती कहते-कहते रुक गई।
राजन कहे जा रहा था - ‘इन फूलों की तरह तुम्हारा यौवन सौंदर्य भी समाप्त हो जाएगा, मन मुरझा जाएगा, फिर तुम कहोगी – मेरा मन शांत हो गया।’
‘तो क्या मुझे मुरझाना होगा।’
‘हाँ पार्वती! अगर तुम यूँ ही पत्थर से दिल लगाती रहीं तो एक दिन तुम्हें भी मुरझाना ही होगा। जीवन अर्पित ही करना है तो किसी मानव को ही दो, जो तुम्हें मुरझाने न दे।’
‘तो क्या मनुष्य कभी देवता जैसा हो सकता है?’
‘क्यों नहीं, पुजारी चाहे तो मनुष्य को भी देवता बना सकता है।’
‘तो देवता और मनुष्य में अंतर ही क्या है?’
‘मनुष्य समय के ढाँचे में ढलता रहता है, जहाँ उसके हृदय में आग है वहाँ दर्द भी है। आज वह देवता का रूप है तो कल शैतान भी हो सकता है। परंतु तुम्हारे देवता जो कल थे, वही आज भी पत्थर के पत्थर।’
‘तो फिर इंसानो से पत्थर भले।’
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