ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘परंतु मुझे और कुछ नहीं सीखना।’
‘वह क्यों?’
‘इसलिए कि बाबा ने कहा है कि अंधकार के पश्चात् कुछ सीखना नहीं चाहिए, बल्कि घर पहुँचना चाहिए।’
‘ओह! बातों में भूल ही गया।’
और दोनों घर की ओर चल पड़े। रास्ते में राजन बोला –
‘पार्वती! जानती हो आज कंपनी से मैंने पहला वेतन पाया है।’
‘मुँह अब खुला।’
‘अवसर ही कब मिला, खेल-कूद की बात जो आरंभ हो गई थी।’
‘तो क्या वह इससे अधिक आवश्यक थी। वहाँ कह दिया होता तो मंदिर में तुम्हारे नाम का प्रसाद ही...।’
‘यह कार्य तो तुम्हारे बाबा कर चुके।’
‘आखिर बाबा की ही मानी, मैं होती तो कहते मैं इन बातों में विश्वास नहीं रखता।’
बातों ही बातों में दोनों घर पहुँच गए। बाबा पहले ही प्रतीक्षा में थे। देखते ही बोले-
‘कब से आरती के लिए राह देख रहा हूँ।’
‘बाबा! दीनू की चाची मिल गई थी और बातों में देर हो गई...।’
‘और राजन तुम खाना खा आए?’
‘जी! अभी सीधा होटल से ही आ रहा हूँ।’
बाबा और पार्वती ने आरती आरंभ की, राजन को भी विवश हो उनका साथ देना पड़ा। आरती के पश्चात् जब पार्वती बाबा के साथ रसोईघर की ओर गई तो राजन होंठों पर जीभ फेरते हुए अपने कमरे में आ लेटा। भूख के मारे पेट पीठ से लगा जा रहा था और पेट में चूहे उछल-कूद कर रहे थे। आज बाबा से झूठ बोला था, कि वह भोजन कर चुका है।
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