ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
राजन इन्हीं विचारों में डूबा हुआ घर पहुँच गया, परंतु पार्वती वहाँ न थी। राजन ने जाते ही बाबा के पाँव छुए और अपना पहला वेतन उनके चरणों में रख दिया – बाबा ने सवा रुपया भगवान के प्रसाद का रखकर बाकी लौटा दिए तथा आशीर्वाद देते हुए बोले, ‘भगवान की कृपा-दृष्टि सदा तुम्हारे पर बनी रहे बेटा, मैं यही कहता हूँ।’
‘पार्वती कहाँ है बाबा?’
‘मंदिर गई होगी।’
‘राजन यह सुनते ही ड्योढ़ी की ओर बढ़ा।’
‘क्यों कहाँ चले?’
‘होटल, भोजन के लिए।’
यह कहता हुआ राजन बाहर की ओर हो लिया, परंतु आज उसे भूख कहाँ? वह तो पार्वती से मिलने को बेचैन था। वहाँ से सीधा मंदिर पहुँचा और सीढ़ियों के पीछे खड़ा पार्वती की प्रतीक्षा करने लगा। जब सीढ़ियाँ उतर पार्वती राजन के समीप से गुजरी तो राजन ने उसे पकड़ते हुए अपनी ओर खींचा। पार्वती भय के मारे चीख उठी परंतु राजन ने शीघ्रता से उसके मुँह के आगे हाथ रख दिया और बोला - ‘मैं राजन हूँ।’
‘ओह! मैं तो डर गई थी। अभी चीख सुन दो-चार मनुष्य इकट्ठे हो जाते तो।’
‘तो क्या होता? यह कह देते कि आपस में खेल रहे थे।’
‘काश! यह सत्य होता।’
‘मैं समझा नहीं।’
‘यही कि आपस में खेल सकते।’
‘तो अब क्या हुआ है?’
‘होना क्या है, बचपन कहाँ से लाएँ?’
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