ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘कलकत्ता से एक चीज मँगवानी है।’
‘हम भी तो सुनें।’
‘आने पर बताऊँगा।’
‘तुम जानो तुम्हारा काम, परंतु एक बात का ध्यान रखना – मँगवाना वही, जिसकी आवश्यकता हो – जमाना जरा नाजुक है।’
‘अच्छा कुंदन तुम चलो मैं जरा कैंटीन हो आऊँ।’
राजन कुंदन से विदा होते ही कंपनी की कैंटीन में गया और एक चाकलेट ले ठाकुर बाबा के घर की ओर हो लिया। आज उस ठाकुर के घर रहते सात दिन बीत चुके थे। कई बार राजन ने वहाँ से जाने को कहा पर ठाकुर बाबा साफ इंकार कर देते और कहते – जब तक तुम्हें कंपनी का क्वार्टर नहीं मिलता हम तुम्हें पत्थरों की ठोकरें नहीं खाने देंगे। राजन को विश्वास था कि इसमें अवश्य पार्वती का हाथ है। उसका आकर्षण ही उसे उनका बोझ बनने के लिए विवश कर रहा था।
पार्वती का सिवाय बाबा का इस संसार में कोई न था। पार्वती के पिता इस कंपनी के मैनेजर भी रह चुके थे। एक दिन खानों की छानबीन करते एक चट्टान फट जाने से उनकी मृत्यु हो गई, तब से वह बाबा के संग अकेली रह रही थी। कंपनी ने इन्हें रहने का स्थान व जीवन-भर की ‘गारंटी’ दे रखी थी। बाबा पार्वती की हर बात मान लेते थे परंतु वह अपने नियम के बड़े पक्के थे – उन्होंने जमाना देखा था। अतः राजन और पार्वती सदा उन्हीं की हाँ में हाँ मिलाते। अधिकतर उनका समय पूजा-पाठ में ही बीतता था। जीवन की यही भेंट वह पार्वती को भी देना चाहते थे। जब तक वह पूजा न करे, बाबा उसे खाने को न देते परंतु वह यह सब कुछ बड़ी प्रसन्नता से करती थी। इसलिए दोनों के जीवन की घड़ियाँ बड़ी खुशी से बीत रही थीं।
दूसरी ओर राजन के नियम कुछ और ही थे। पूजा-पाठ से तो वह कोसों दूर भागता, परंतु भगवान से विमुख न था। वह भगवान को घूस देने का आदी नहीं था, बल्कि उसके लिए दिए हुए जीवन को काम में लाना चाहता था। उसे विश्वास था कि भगवान ने उसे इस संसार में कोई कार्य करने को भेजा है। उसको पूर्ण करना ही उसका सच्ची पूजा है। उसे मंदिरों में घंटे बजाकर या चढ़ावा चढ़ाकर प्रसन्न नहीं किया जा सकता। कलकत्ता में उसने कई सेवा के कार्य करने का प्रयत्न किया, परंतु दरिद्रता सदा ही उसके बीच में बाधा बनकर आ खड़ी हुई।
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