ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
|
1 पाठकों को प्रिय 253 पाठक हैं |
हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘यहाँ कंपनी में नौकर हूँ।’
‘तो इस प्रकार तूफान में।’
‘अभी रहने का प्रबंध नहीं है।’
‘सराय जो है। बहुत कम दाम पर...।’
‘परंतु मैं एकांतप्रिय हूँ। भीड़ में मेरी साँस घुटने लगती है।’
‘अच्छा तुम विश्राम करो। कपड़े भीग रहे हैं।’
‘रामू।’उन्होंने आवाज दी और पहले मनुष्य ने अंदर प्रवेश किया।
‘देखो! एक धोती-कुर्ता इन्हें दे दो, पिछवाड़े का कमरा भी।’
राजन ठाकुर बाबा का संकेत पाते ही रामू के साथ हो लिया। दोनों एक छोटे से कमरे में पहुँचे जो न जाने कब से बंद पड़ा था। हर ओर धूल जमी पड़ी थी। रामू धोती-कुर्ता भी ले आया और किवाड़ बंद कर वापस लौट गया। राजन ने रामू से अधिक पूछताछ करना ठीक न समझा। परंतु फिर भी यह सोचकर असमंजस में पड़ा हुआ था कि ठाकुर बाबा ने उसे यहाँ क्यों बुलाया है? वह उसका कौन है? यदि परदेसी ही समझ कर अतिथि रखा है तो उन्होंने उसे पहले देखा कहाँ? खैर फिर भी इस भयानक रात में आसरा देने वाले का भला हो।
उसने भीगे वस्त्र उतार कर सामने फैला दिए और स्वयं धोती-कुर्ता पहन पास बिछी खाट पर लेट गया। राजन की आँखों में भरी नींद उड़ चुकी थी – वह शीत के मारे काँप रहा था।
अचानक किवाड़ धीरे से खुला और किसी के अंदर आने की आहट हुई – राजन चौंक उठा। सामने उसने देखा – हाथों में चाय का प्याला लिए पार्वती को – पार्वती खड़ी मुस्कुरा रही थी – वह भौचक्का-सा रह गया – उसके दाँत जोर-जोर से बजने लगे।
राजन को यूँ घबराहट में देख पार्वती बोली -
‘डरो नहीं, यह चाय है, देखो शीत के मारे तुम्हारे दाँत बज रहे हैं।’
|