लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान

जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579
आईएसबीएन :9781613013069

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

253 पाठक हैं

हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना

‘जी।’

‘तुम्हारा कोई घर नहीं है?’

‘नहीं।’

‘तुम्हें जाड़ा नहीं लगता?’ आर्द्रकण्ठ से उसने पूछा।

‘जाड़ा? यह सामने पहाड़ों की चट्टानें देखती हो? यह भी युगो-युगों से बाहर खुली हवा में खड़ी प्रकृति का सामना कर रही है। मनुष्य तो क्या कभी भगवान् को भी इन पर दया नहीं आती।’

‘परंतु आप यह क्यों भूल जाते हैं कि वह शिलाएँ हैं जो पत्थर की बनी हैं और दूसरी ओर माँस-मज्जा से बना हुआ मनुष्य है।’

‘मैं भी तो शिला से कम नहीं हूँ।’

‘केवल शरीर को ही शिला बना लेने से काम नहीं चलता। हृदय भी शिला के समान होना चाहिए।’

यह कहती-कहती पार्वती चली गई। वह बहुत समय तक बैठा हुआ सोचता रहा, ‘ठीक तो कहती है, यदि हृदय शिला के समान न हो तो शरीर शिला बनाने से क्या लाभ?’

बिजली चमकी। कई बार बादलों की गड़गड़ाहट सुनी। राजन ने देखा चारों ओर काली घटा घिरती आ रही थी। दूर-दूर तक कुछ दिखाई न देता था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। घरों के झरोखों के अन्दर जलते हुए दीयों का प्रकाश यह सूचना दे रहा था कि ‘सीतलवादी’ के लोग अभी सोए नहीं।

राजन ने सोचा कि आज की रात कुंदन के घर पर ही बिताई जाए। वायु की गति तीव्र होती जा रही थी। वह शीघ्रता से ‘वादी’ की ओर लपका। बादलों की गूँज पहाड़ियों से टकराकर गूँज उठती थी। नदी का जल वायु के थपेड़ों से उछल-उछलकर खिलवाड़ कर रहा था। राजन ने गाँव की ओर देखा। तूफान के डर से सब झरोखे बन्द हो चुके थे।

सीतलवादी में अँधेरा छा चुका था। उसी समय छींटे पड़ने लगे थे। मंदिर के द्वार अब तक खुले ही थे शायद मंदिर के देवताओं को इस तूफान का कोई भय न था। वह शीघ्रता से लौटा और मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा, परंतु अभी ऊपर पहुँचा भी न था कि पुजारी ने द्वार बंद कर लिए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai