ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“अच्छा रहने दो। लड़कियाँ न हों तो काम ही न चले।” सुधा ने कहा।
“अच्छा, सुधा! आज कुछ रुपये दोगी। हमारे पास पैसे खतम हैं। और सिनेमा देखना है जरा।” चन्दर ने बहुत दुलार से कहा।
“हाँ-हाँ, जरूर देंगे तुम्हें। मतलबी कहीं के!” सुधा बोली, “अभी-अभी तुम लड़कियों की बुराई कर रहे थे न?”
“तो तुम और लड़कियों में से थोड़े ही हो। तुम तो हमारी सुधा हो। सुधा महान।”
सुधा पिघल गयी-”अच्छा, कितना लोगे?” अपनी पॉकेट में से पाँच रुपये का नोट निकालकर बोली, “इससे काम चल जाएगा?”
“हाँ-हाँ, आज जरा सोच रहे हैं पम्मी के यहाँ जाएँ, तब सेकेंड शो जाएँ।”
“पम्मी रानी के यहाँ जाओगे। समझ गये, तभी तुमने चाचाजी से ब्याह करने से इनकार कर दिया। लेकिन पम्मी तुमसे तीन साल बड़ी है। लोग क्या कहेंगे?” सुधा ने छेड़ा।
“ऊँह, तो क्या हुआ जी! सब यों ही चलता है!” चन्दर हँसकर टाल गया।
“तो फिर खाना यहीं खाये जाओ और कार लेते जाओ।” सुधा ने कहा।
“मँगाओ!” चन्दर ने पलँग पर पैर फैलाते हुए कहा। खाना आ गया। और जब तक चन्दर खाता रहा, सुधा सामने बैठी रही और बिनती दौड़-दौडक़र पूड़ी लाती रही।
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