ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“बिनती गाती भी है?” चन्दर ने पूछा, “हमने तो रोते ही देखा।”
“अरे बहुत अच्छा गाती है। इसने एक गाँव का गाना बहुत अच्छा गाया था।...अरे देखो वह सब बताने में हम तुम पर गुस्सा होना तो भूल ही गये। कहाँ रहे चार रोज? बोलो, बताओ जल्दी से।”
“व्यस्त थे सुधा, अब थीसिस तीन हिस्सा लिख गयी। इधर हम लगातार पाँच घंटे से बैठकर लिखते थे!” चन्दर बोला।
“पाँच घंटे!” सुधा बोली, “दूध आजकल पीते हो कि नहीं?”
“हाँ-हाँ, तीन गायें खरीद ली हैं...।” चन्दर बोला।
“नहीं, मजाक नहीं, कुछ खाते-पीते रहना, कहीं तबीयत खराब हुई तो अब हमारा इम्तहान है, पड़े-पड़े मक्खी मारोगे और अब हम देखने भी नहीं आ सकेंगे।”
“अब कितना कोर्स बाकी है तुम्हारा?”
“कोर्स तो खत्म था हमारा। कुछ कठिनाइयाँ थीं सो पिछले दो-तीन हफ्ते में मास्टर साहब ने बता दी थीं। अब दोहराना है। लेकिन बिनती का इम्तहान मई में है, उसे भी तो पढ़ाना है।”
“अच्छा, अब चलें हम।”
“अरे बैठो! फिर जाने कै दिन बाद आओगे। आज बुआ तो चली जाएँगी फिर कल से यहीं पढ़ो न। तुमने बिनती के ससुर को देखा था?”
“हाँ, देखा था!” चन्दर उनकी रूपरेखा याद करके हँस पड़ा-”बाप रे! पूरे टैंक थे वे तो।”
“बिनती की ननद से तुम्हारा ब्याह करवा दें। करोगे?” सुधा बोली, “लड़की इतनी ही मोटी है। उसे कभी डाँट लेना तो देखेंगे तुम्हारी हिम्मत।”
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