ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“मैं अब घर जाऊँगा।”
“ऊँहूँ, यह देखो!” और उसने भीतर से कागजों का एक बंडल निकाला और बोली, “देखो, यह पापा ने तुम्हारे लिए दिया है। लखनऊ में कॉन्फ्रेन्स है न। वहीं पढऩे के लिए यह निबन्ध लिखा है उन्होंने। शाम तक यह टाइप हो जाना चाहिए। जहाँ संख्याएँ हैं वहाँ खुद आपको बैठकर बोलना होगा। और पापा सुबह से ही कहीं गये हैं। समझे जनाब!” उसने बिल्कुल अल्हड़ बच्चों की तरह गरदन हिलाकर शोख स्वरों में कहा।
कपूर ने बंडल ले लिया और कुछ सोचता हुआ बोला, “लेकिन डॉक्टर साहब का हस्तलेख, इतने पृष्ठ, शाम तक कौन टाइप कर देगा?”
“इसका भी इन्तजाम है,” और अपने ब्लाउज में से एक पत्र निकालकर चन्दर के हाथ में देती हुई बोली, “यह कोई पापा की पुरानी ईसाई छात्रा है। टाइपिस्ट। इसके घर मैं तुम्हें पहुँचाये देती हूँ। मुकर्जी रोड पर रहती है यह। उसी के यहाँ टाइप करवा लेना और यह खत उसे दे देना।”
“लेकिन अभी मैंने चाय नहीं पी।”
“समझ गये, अब तुम सोच रहे होगे कि इसी बहाने सुधा तुम्हें चाय भी पिला देगी। सो मेरा काम नहीं है जो मैं चाय पिलाऊँ? पापा का काम है यह! चलो, आओ!”
चन्दर जाकर भीतर बैठ गया और किताबें उठाकर देखने लगा, “अरे, चारों कविता की किताबें उठा लायी-समझ में आएँगी तुम्हारे? क्यों, सुधा?”
“नहीं!” चिढ़ाते हुए सुधा बोली, “तुम कहो, तुम्हें समझा दें। इकनॉमिक्स पढऩे वाले क्या जानें साहित्य?”
“अरे, मुकर्जी रोड पर ले चलो, ड्राइवर!” चन्दर बोला, “इधर कहाँ चल रहे हो?”
“नहीं, पहले घर चलो!” सुधा बोली, “चाय पी लो, तब जाना!”
“नहीं, मैं चाय नहीं पिऊँगा।” चन्दर बोला।
“चाय नहीं पिऊँगा, वाह! वाह!” सुधा की हँसी में दूधिया बचपन छलक उठा-”मुँह तो सूखकर गोभी हो रहा है, चाय नहीं पिएँगे।”
बँगला आया तो सुधा ने महराजिन से चाय बनाने के लिए कहा और चन्दर को स्टडी रूम में बिठाकर प्याले निकालने के लिए चल दी।
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