ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“मैं ज़रा जिमखाने की ओर जा रहा हूँ। अच्छा भाई, तो शाम को पक्की रही।”
“बिल्कुल पक्की!” कपूर बोला और चल दिया।
लाइब्रेरी के पोर्टिको में कार रुकी थी और उसके अन्दर ही डॉक्टर साहब की लड़की बैठी थी।
“क्यों सुधा, अन्दर क्यों बैठी हो?”
“तुम्हें ही देख रही थी, चन्दर।” और वह उतर आयी। दुबली-पतली, नाटी-सी, साधारण-सी लड़की, बहुत सुन्दर नहीं, केवल सुन्दर, लेकिन बातचीत में बहुत दुलारी।
“चलो, अन्दर चलो।” चन्दर ने कहा।
वह आगे बढ़ी, फिर ठिठक गयी और बोली, “चन्दर, एक आदमी को चार किताबें मिलती हैं?”
“हाँ! क्यों?”
“तो...तो...” उसने बड़े भोलेपन से मुसकराते हुए कहा, “तो तुम अपने नाम से मेम्बर बन जाओ और दो किताबें हमें दे दिया करना बस, ज्यादा का हम क्या करेंगे?”
“नहीं!” चन्दर हँसा, “तुम्हारा तो दिमाग खराब है। खुद क्यों नहीं बनतीं मेम्बर?”
“नहीं, हमें शरम लगती है, तुम बन जाओ मेम्बर हमारी जगह पर।”
“पगली कहीं की!” चन्दर ने उसका कन्धा पकडक़र आगे ले चलते हुए कहा, “वाह रे शरम! अभी कल ब्याह होगा तो कहना, हमारी जगह तुम बैठ जाओ चन्दर! कॉलेज में पहुँच गयी लड़की; अभी शरम नहीं छूटी इसकी! चल अन्दर!”
और वह हिचकती, ठिठकती, झेंपती और मुड़-मुडक़र चन्दर की ओर रूठी हुई निगाहों से देखती हुई अन्दर चली गयी।
थोड़ी देर बाद सुधा चार किताबें लादे हुए निकली। कपूर ने कहा, “लाओ, मैं ले लूँ!” तो बाँस की पतली टहनी की तरह लहराकर बोली, “सदस्य मैं हूँ। तुम्हें क्यों दूँ किताबें?” और जाकर कार के अन्दर किताबें पटक दीं। फिर बोली, “आओ, बैठो, चन्दर!”
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