ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“नहीं पापा, हम ब्याह नहीं करेंगे।” सुधा ने मचलकर कहा।
“तब?”
“बस हम पढ़ेंगे। एफ.ए. कर लेंगे, फिर बी.ए., फिर एम.ए., फिर रिसर्च, फिर बराबर पढ़ते जाएँगे, फिर एक दिन हम भी तुम्हारे बराबर हो जाएँगे। क्यों, पापा?”
“पागल नहीं तो, बातें तो सुनो इसकी! ला, दो नानखटाई और दे।” शुक्ला हँसकर बोले।
“नहीं, पहले तो कबूल दो तब हम नानखटाई देंगे। बताओ ब्याह तो नहीं करोगे।” सुधा ने दो नानखटाइयाँ हाथ में उठाकर कहा।
“ला, रख।”
“नहीं, पहले बता दो।”
“अच्छा-अच्छा, नहीं करेंगे।”
सुधा ने दोनों नानखटाइयाँ रखकर पंखा झलना शुरू किया। इतने में फिर नानखटाइयाँ खाते हुए डॉ. शुक्ला बोले, “तेरी सास तुझे देखने आएगी तो यही नानखटाइयाँ तुमसे बनवा कर खिलाएँगे।”
“फिर वही बात!” सुधा ने पंखा पटककर कहा, “अभी तुम वादा कर चुके हो कि ब्याह नहीं करेंगे।”
“हाँ-हाँ, ब्याह नहीं करूँगा, यह तो कह दिया मैंने। लेकिन तेरा ब्याह नहीं करूँगा, यह मैंने कब कहा?”
“हाँ आँ, ये तो फिर झूठ बोल गये तुम...” सुधा बोली।
“अच्छा, ए! चलो ओहर।” महराजिन ने डाँटकर कहा, “एत्ती बड़ी बिटिया हो गयी, मारे दुलारे के बररानी जात है।” महराजिन पुरानी थी और सुधा को डाँटने का पूरा हक था उसे, और सुधा भी उसका बहुत लिहाज करती थी। वह उठी और चुपचाप जाकर अपने कमरे में लेट गयी। बारह बज रहे थे।
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