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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577
आईएसबीएन :9781613012482

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संवेदनशील प्रेमकथा।


6


चन्दर के जाने के जरा ही देर बाद पापा आये और खाने बैठे। सुधा ने रसोई की रेशमी धोती पहनी और पापा को पंखा झलने बैठ गयी। सुधा अपने पापा की सिरचढ़ी दुलारी बेटियों में से थी और इतनी बड़ी हो जाने पर भी वह दुलार दिखाने से बाज नहीं आती थी। फिर आज तो उसने पापा की प्रिय नानखटाई अपने हाथ से बनायी थी। आज तो दुलार दिखाने का उसका हक था और भली-बुरी हर तरह की जिद को मान लेना करना, यह पापा की मजबूरी थी।

मुश्किल से डॉ. साहब ने अभी दो कौर खाये होंगे कि सुधा ने कहा, “नानखटाई खाओ, पापा!”

डॉ. शुक्ला ने एक नानखटाई तोडक़र खाते हुए कहा, “बहुत अच्छी है!” खाते-खाते उन्होंने पूछा, “सोमवार को कौन दिन है, सुधा!”

“सोमवार को कौन दिन है? सोमवार को 'मण्डे' है।” सुधा ने हँसकर कहा। डॉ. शुक्ला भी अपनी भूल पर हँस पड़े। “अरे देख तो मैं कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ। मेरा मतलब था कि सोमवार को कौन तारीख है?”

“11 तारीख।” सुधा बोली, “क्यों?”

“कुछ नहीं, 10 को कॉन्फ्रेन्स है और 14 को तुम्हारी बुआ आ रही हैं।”

“बुआ आ रही हैं, और बिनती भी आएगी?”

“हाँ, उसी को तो पहुँचाने आ रही हैं। विदुषी का केन्द्र यहीं तो है।”

“आहा! अब तो बिनती तीन महीने यहीं रहेगी, पापा अब बिनती को यहीं बुला लो। मैं बहुत अकेली रहती हूँ।”

“हाँ, अब तो जून तक यहीं रहेगी। फिर जुलाई में उसकी शादी होगी।” डॉ. शुक्ला ने कहा।

“अरे, अभी से? अभी उसकी उम्र ही क्या है!” सुधा बोली।

“क्यों, तेरे बराबर है। अब तेरे लिए भी तेरी बुआ ने लिखा है।”

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