ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“किस दर्जे में पढ़ती है?”
“प्राइवेट विदुषी में बैठेगी इस साल। खूब गोल-मटोल और हँसमुख है।” सुधा बोली।
इतने में घंटा बोला और गेसू ने सुधा के पैर के नीचे दबी हुई अपनी ओढ़नी खींची।
“अरे, अब आखिरी घंटे में जाकर क्या पढ़ोगी! हाजिरी कट ही गयी। अब बैठो यहीं बातचीत करें, आराम करें।” सुधा ने अलसाये स्वर में कहा और खड़ी होकर एक मदमाती हुई अँगड़ाई ली-गेसू ने हाथ पकडक़र उसे बिठा लिया और बड़ी गम्भीरता से कहा, “देखो, ऐसी अरसौहीं अँगड़ाई न लिया करो, इससे लोग समझ जाते हैं कि अब बचपन करवट बदल रहा है।”
“धत्!” बेहद झेंपकर और फाइल में मुँह छिपाकर सुधा बोली।
“लो, तुम मजाक समझती हो, एक शायर ने तुम्हारी अँगड़ाई के लिए कहा है-
कौन ये ले रहा है अँगड़ाई
आसमानों को नींद आती है”
“वाह!” सुधा बोली, “अच्छा गेसू, आज बहुत-से शेर सुनाओ।”
“सुनो-
इक रिदायेतीरगी है और खाबेकायनात
डूबते जाते हैं तारे, भीगती जाती है रात!”
“पहली लाइन के क्या मतलब हैं?” सुधा ने पूछा।
“रिदायेतीरगी के माने हैं अँधेरे की चादर और खाबेकायनात के माने हैं जिंदगी का सपना-अब फिर सुनो शेर-
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