ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“अच्छा, चल हट बेशरम कहीं की, खुद ब्याह करने की ठान चुकी है तो दुनिया-भर को क्यों तोहमत लगाती है!”
“मैं तो ठान ही चुकी हूँ, मेरा क्या! फ्रिक तो तुम लोगों की है कि ब्याह नहीं होता तो लेटकर बादल देखती हैं।” गेसू ने मचलते हुए कहा।
“अच्छा अच्छा,” गेसू की ओढ़नी खींचकर सिर के नीचे रखकर सुधा ने कहा, “क्या हाल है तेरे अख्तर मियाँ का? मँगनी कब होगी तेरी?”
“मँगनी क्या, किसी भी दिन हो जाय, बस फूफीजान के यहाँ आने-भर की कसर है। वैसे अम्मी तो फूल की बात उनसे चला रही थीं, पर उन्होंने मेरे लिए इरादा जाहिर किया। बड़े अच्छे हैं, आते हैं तो घर-भर में रोशनी छा जाती है।” गेसू ने बहुत भोलेपन से गोद में सुधा का हाथ रखकर उसकी उँगलियाँ चिटकाते हुए कहा।
“वे तो तेरे चचाजाद भाई हैं न? तुझसे तो पहले उनसे बोल-चाल रही होगी।” सुधा ने पूछा।
“हाँ-हाँ, खूब अच्छी तरह से। मौलवी साहब हम लोगों को साथ-साथ पढ़ाते थे और जब हम दोनों सबक भूल जाते थे तो एक-दूसरे का कान पकडक़र साथ-साथ उठते-बैठते थे।” गेसू कुछ झेंपते हुए बोली।
सुधा हँस पड़ी, “वाह रे! प्रेम की इतनी विचित्र शुरुआत मैंने कहीं नहीं सुनी थी। तब तो तुम लोग एक-दूसरे का कान पकडऩे के लिए अपने-आप सबक भूल जाते होंगे?”
“नहीं जी, एक बार फिर पढक़र कौन सबक भूलता है और एक बार सबक याद होने के बाद जानती हो इश्क में क्या होता है-
मकतबे इश्क में इक ढंग निराला देखा,
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ"
“खैर, यह सब बात जाने दे सुधा, अब तू कब ब्याह करेगी?”
“जल्दी ही करूँगी।” सुधा बोली।
“किससे?”
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