ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“क्यों?” चन्दर कैलाश के व्यवहार पर मुग्ध था।
“इन जैसी लड़कियों के लिए तुम कोई कवि या कलाकार या भावुक लड़काढूँढ़ते तो ठीक था। मेरे जैसा व्यावहारिक और नीरस राजनीतिक इनके उपयुक्त नहीं है। घर भर इनसे बेहद खुश है। जब से ये गयी हैं, माँ और शंकर भइया दोनों ने मुझे नालायक करार दे दिया है। इन्हीं से पूछकर सब करते हैं, लेकिन मैंने जो सोच रखा था, वह मुझे नहीं मिल पाया!”
“क्यों, क्या बात है?” चन्दर ने पूछा, “गलती बताओ तो हम इन्हें समझाएँ।”
“नहीं, देखो गलत मत समझो। मैं यह नहीं कहता कि इनकी गलती है। यह तो गलत चुनाव की बात है।” कैलाश बोला, “न इसमें मेरा कसूर, न इनका! मैं चाहता था कोई लड़की जो मेरे साथ राजनीति का काम करती, मेरी सबलता और दुर्बलता दोनों की संगिनी होती। इसीलिए इतनी पढ़ी-लिखी लड़की से शादी की। लेकिन इन्हें धर्म और साहित्य में जितनी रुचि है, उतनी राजनीति से नहीं। इसलिए मेरे व्यक्तित्व को ग्रहण भी नहीं कर पायीं। वैसे मेरी शारीरिक प्यास को इन्होंने चाहे समर्पण किया, वह भी एक बेमनी से, उससे तन की प्यास भले ही बुझ जाती हो कपूर, लेकिन मन तो प्यासा ही रहता है...बुरा न मानना। मैं बहुत स्पष्ट बातें करता हूँ। तुमसे छिपाना क्या?...और स्वास्थ्य के मामले में ये इतनी लापरवाह हैं कि मैं बहुत दु:खी रहता हूँ।” इतने में सुधा नहाकर आती हुई दिख पड़ी। कैलाश चुप हो गया। सुधा की ओर देखकर बोला, “मेरी अटैची भी ठीक कर दो। मैं अभी चला जाऊँ वरना दोपहर में तपना होगा।” सुधा चली गयी। सुधा के जाते ही कैलाश बोला, “भरसक मैं इन्हें दु:खी नहीं होने देता, हाँ, अकसर ये दुखी हो जाती हैं; लेकिन मैं क्या करूँ, यह मेरी मजबूरी है, वैसे मैं इन्हें भरसक सुखी रखने का प्रयास करता हूँ...और ये भी जायज-नाजायज हर इच्छा के सामने झुक जाती हैं, लेकिन इनके दिल में मेरे लिए कोई जगह नहीं है, वह जो एक पत्नी के मन में होती है। लेकिन खैर, जिंदगी चलती जा रही है। अब तो जैसे हो निभाना ही है!”
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