ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
लेकिन वह नशा टूट चुका था, वह साँस धीमी पड़ गयी थी...अपनी हर कोशिश के बावजूद वह पम्मी को उदास होने से बचा न पाता था।
एक दिन सुबह जब वह कॉलेज जा रहा था कि पम्मी की कार आयी। पम्मी बहुत ही उदास थी। चन्दर ने आते ही उसका स्वागत किया। उसके कानों में एक नीले पत्थर का बुन्दा था, जिसकी हल्की छाँह गालों पर पड़ रही थी। चन्दर ने झुककर वह नीली छाँह चूम ली।
पम्मी कुछ नहीं बोली। वह बैठ गयी और फिर चन्दर से बोली, “मैं लखनऊ जा रही हूँ, कपूर!”
“कब? आजï?”
“हाँ, अभी कार से।”
“क्यों?”
“यों ही, मन ऊब गया! पता नहीं, कौन-सी छाँह मुझ पर छा गयी है। मैं शायद लखनऊ से मसूरी चली जाऊँ।”
“मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा, पहले तो तुमने बताया नहीं!”
“तुम्हीं ने कहाँ पहले बताया था!”
“क्या?”
“कुछ भी नहीं! अच्छा, चल रही हूँ।”
“सुनो तो!”
“नहीं, अब रोक नहीं सकते तुम...बहुत दूर जाना है चन्दर...” वह चल दी। फिर वह लौटी और जैसे युगों-युगों की प्यास बुझा रही हो, चन्दर के गले में झूल गयी और कस लिया चन्दर को...पाँच मिनट बाद सहसा वह अलग हो गयी और फिर बिना कुछ बोले अपनी कार में बैठ गयी। “पम्मी...तुम्हें हुआ क्या यह?”
“कुछ नहीं, कपूर।” पम्मी कार स्टार्ट करते हुए बोली, “मैं तुमसे जितनी ही दूर रहूँ उतना ही अच्छा है, मेरे लिए भी, तुम्हारे लिए भी! तुम्हारे इन दिनों के व्यवहार ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया है?”
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