ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“और बिनती कहाँ है?” लड़की ने बात काटकर पूछा।
“बिनती दिल्ली में है।”
“क्या उसकी भी शादी हो गयी?”
“जी नहीं, डॉक्टर साहब आजकल दिल्ली में हैं। वह उन्हीं के पास पढ़ रही है। बैठ तो जाइए!” चन्दर ने कुर्सी खिसकाकर कहा।
“अच्छा, तो आप यहीं रहते हैं अब? नौकर हो गये होंगे?”
“जी हाँ!” चन्दर ने अचरज में डूबकर कहा, “लेकिन आप इतनी जानकारी और परिचय की बातें कर रही हैं, मैंने आपको पहचाना नहीं, क्षमा कीजिएगा...”
वह लड़की हँसी, जैसे अपनी किस्मत, जिंदगी, अपने इतिहास पर हँस रही हो।
“आप मुझको कैसे पहचान सकते हैं? मैं जरूर आपको देख चुकी थी। मेरे-आपके बीच में दरअसल एक रोशनदान था, मेरा मतलब सुधा से है!”
“ओह! मैं समझा, आप गेसू हैं!”
“जी हाँ!” और गेसू ने बहुत तमीज से अपनी चुन्नी ओढ़ ली।
“आप तो शादी के बाद जैसे बिल्कुल खो ही गयीं। अपनी सहेली को भी एक खत नहीं लिखा। अख्तर मियाँ मजे में हैं?”
“आपको यह सब कैसे मालूम?” बहुत आकुल होकर गेसू बोली और उसकी पीली आँखों में और भी मैलापन आ गया।
“मुझे सुधा से मालूम हुआ था। मैं तो उम्मीद कर रहा था कि आप हम लोगों को एक दावत जरूर देंगी। लेकिन कुछ मालूम ही नहीं हुआ। एक बार सुधाजी ने मुझे आपके यहाँ भेजा तो मालूम हुआ कि आप लोगों ने मकान ही छोड़ दिया है।”
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