ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
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गरमी का मौसम आ गया था। चन्दर सुबह कॉलेज जाता, दोपहर को सोता और शाम को वह नियमित रूप से पम्मी को लेकर घूमने जाता। डॉक्टर साहब कार छोड़ गये थे। कार पम्मी और चन्दर को लेकर दूर-दूर का चक्कर लगाया करती थी। इस बार उसने अपनी छुट्टियाँ दिल्ली में ही बिताने की सोची थीं। पम्मी ने भी तय किया था कि मसूरी से लौटते समय जुलाई में वह एक हफ्ते आकर डॉक्टर शुक्ला की मेहमानी करेगी और दिल्ली के पूर्वपरिचितों से भी मिल लेगी।
यह नहीं कहा जा सकता कि चन्दर के दिन अच्छी तरह नहीं बीत रहे थे। उसने अपना अतीत भुला दिया था और वर्तमान को वह पम्मी की नशीली निगाहों में डुबो चुका था। भविष्य की उसे कोई खास चिन्ता नहीं थी। उसे लगता था कि यह पम्मी की निगाहों के बादलों और स्पर्शों के फूलों की जादू भरी दुनिया अमर है, शाश्वत है। इस जादू ने हमेशा के लिए उसकी आत्मा को अभिभूत कर लिया है, ये होठ कभी अलग न होंगे, यह बाहुपाश इसी तरह उसे घेरे रहेगा और पम्मी की गरम तरुण साँसें सदा इसी प्रकार उसके कपोलों को सिहराती रहेंगी। आदमी का विश्वास हमेशा सीमाएँ और अन्त भूल जाने का आदी होता है। चन्दर भी सबकुछ भूल चुका था।
अप्रैल की एक शाम। दिन-भर लू चलकर अब थक गयी थी। लेकिन दिन-भर की लू की वजह से आसमान में इतनी धूल भर गयी थी कि धूप भी हल्की पड़ गयी थी। माली बाहर छिड़काव कर रहा था। चन्दर सोकर उठा था और सुस्ती मिटा रहा था। थोड़ी देर बाद वह उठा, दिशाओं की ओर निरुद्देश्य देखने लगा। बड़ी उदास-सी शाम थी। सड़क भी बिल्कुल सूनी थी, सिर्फ दो-एक साइकिल-सवार लू से बचने के लिए कानों पर तौलिया लपेटे हुए चले जा रहे थे। एक बर्फ का ठेला भी चला जा रहा था। “जाओ, बर्फ ले आओ?” चन्दर ने माली को पैसे देते हुए कहा। माली ने ठेलावाले को बुलाया। ठेलावाला आकर फाटक पर रुक गया।
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