ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
डॉक्टर साहब की दिल्ली जाने की तैयारी हो गयी। बिनती ने कार्यक्रम में कुछ परिवर्तन करा लिया था। अब वह पहले डॉक्टर साहब के साथ शाहजहाँपुर जाएगी और तब दिल्ली।
निश्चय करते-करते अन्त में पहली फरवरी को वे लोग गये। स्टेशन पर बहुत-से विद्यार्थी और डॉक्टर साहब के मित्र उन्हें विदा देने के लिए आये थे। बिनती विद्यार्थियों की भीड़ से घबराकर इधर चली आयी और चन्दर को बुलाकर कहने लगी-”चन्दर! दीदी के लिए एक खत तो दे दो!”
“नहीं।” चन्दर ने बहुत रूखे और दृढ़ स्वर में कहा।
बिनती कुछ क्षण तक एकटक चन्दर की ओर देखती रही; फिर बोली, “चन्दर, मन की श्रद्धा चाहे अब भी वैसी हो, लेकिन तुम पर अब विश्वास नहीं रहा।”
चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया, सिर्फ हँस पड़ा। फिर बोली, “चन्दर, अगर कभी कोई जरूरत हो तो जरूर लिखना, मैं चली आऊँगी, समझे?” और फिर चुपचाप जाकर बैठ गयी।
जब चन्दर लौटा तो उसके साथ कई साथी प्रोफेसर थे। घर पहुँचकर वह कार लेकर पम्मी के यहाँ चल दिया। पता नहीं क्यों बिनती के जाने का चन्दर को कुछ थोड़ा-सा दु:ख था।
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