ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
|
7 पाठकों को प्रिय 305 पाठक हैं |
संवेदनशील प्रेमकथा।
“अरे नहीं!” पम्मी ने उठकर बर्टी का माथा सहलाते हुए कहा, “मैं तो भूल गयी और कपूर भी भूल गये?”
“अच्छा, धन्यवाद! पम्मी, अपना हाथ इधर लाओ!” और वह पम्मी के हाथ पर सिर रखकर पड़ रहा और बोला, “मैं कितना अभागा हूँ! कितना अभागा! अच्छा पम्मी, कल रात को तुमने सुना था, वह आयी थी और पूछ रही थी, बर्टी तुम्हारी तबीयत अब ठीक है, मैंने झट अपनी आँखें ढँक लीं कि कहीं आँखों का पीलापन देख न ले। मैंने कहा, तबीयत अब ठीक है, मैं अच्छा हूँ तो उठी और जाने लगी। मैंने पूछा, कहाँ चली, तो बोली सार्जेंट के साथ ज़रा क्लब जा रही हूँ। तुमने सुना था पम्मी?”
कपूर स्तब्ध-सा उन दोनों की ओर देख रहा था। पम्मी ने कपूर को आँख का इशारा करते हुए कहा, “हाँ, हमसे मिली थी वह, लेकिन बर्टी, वह सार्जेंट के साथ नहीं गयी थी!”
“हाँ, तब?” बर्टी की आँखें चमक उठीं और उसने उल्लास-भरे स्वर में पूछा।
“वह बोली, बर्टी के ये गुलाब सार्जेंट से ज्यादा प्यारे हैं।” पम्मी बोली।
“अच्छा!” मुसकराहट से बर्टी का चेहरा खिल उठा, उसकी पीली-पीली आँखें और धँस गयीं और दाँत बाहर झलकने लगे, “हूँ! क्या कहा उसने, फिर तो कहो!”
उसने कहा, “ये गुलाब सार्जेंट से ज्यादा प्यारे हैं, फिर इन्हीं गुलाबों पर नाचती रही और सुबह होते ही इन्हीं फूलों में छिप गयी! तुम्हें सुबह किसी फूल में तो नहीं मिली?”
“उहूँ, तुम्हें तो किसी फूल में नहीं मिली?” बर्टी ने बच्चों के-से भोले विश्वास के स्वरों में कपूर से पूछा।
चन्दर चौंक उठा। पम्मी और बर्टी की इन बातों पर उसका मन बेहद भर आया था। बर्टी की मुसकराहट पर उसकी नसें थरथरा उठी थीं।
|