ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
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एक दिन रात को जब वह लौटा तो देखा कि अपनी कार आ गयी है। उसका मन फूल उठा। जैसे कोई अनाथ भटका हुआ बच्चा अपने संरक्षक की गोद के लिए तड़प उठता है, वैसे ही वह पिछले डेढ़ महीने से डॉक्टर साहब के लिए तरस गया था। जहाँ इस वक्त उसके जीवन में सिर्फ नशा और नीरसता थी, वहीं हृदय के एक कोने में सिर्फ एक सुकुमार भावना शेष रह गयी थी, वह थी डॉक्टर शुक्ला के प्रति। वह भावना कृतज्ञता की भावना नहीं थी, डॉक्टर शुक्ला इतने दूर नहीं थे कि अब वह उनके प्रति कृतज्ञ हो, इतने बड़े हो जाने पर भी वह जब कभी डॉक्टर को देखता था तो लगता था जैसे कोई नन्हा बच्चा अपने अभिभावक की गोद में आकर निश्चिन्त हो जाता हो।
उसने पास आकर देखा, डॉक्टर साहब बरामदे में टहल रहे थे। चन्दर दौडक़र उनके पाँव पर गिर पड़ा। डॉक्टर साहब ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए बोले-”कन्वोकेशन हो गया? डिग्री जीत लाये?”
“जी हाँ!” बड़ी विनम्रता से चन्दर ने कहा।
“बहुत ठीक, अब डी. लिट्. की तैयारी करो। तुम्हें जल्दी ही सेंट्रल गवर्नमेंट में जाना है।” डॉक्टर साहब बोले, “मैं तो पंद्रह जनवरी को दिल्ली जा रहा हूँ। कम-से-कम साल भर के लिए?”
“इतनी जल्दी; ऑफर कब आया?” चन्दर ने अचरज से पूछा।
“मैं उन दिनों दिल्ली गया था न, तभी एजुकेशन मिनिस्टर से बात हुई थी!” डॉक्टर साहब ने चन्दर को देखते हुए कहा, “अरे, तुम कुछ दुबले हो रहे हो! क्यों महराजिन ने ठीक से काम नहीं किया?”
“नहीं!” चन्दर हँसकर बोला, “बिनती की शादी ठीक-ठाक हो गयी?”
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