ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“लो यकीन नहीं होता आपको? मुझे कैसे मालूम हुआ इतना। मैं आपसे कुछ नहीं छिपाती, वहाँ तो सब लोग इसे इतना स्वाभाविक समझते हैं जितना खाना-पीना, हँसना-बोलना। बस लड़कियाँ इस बात में सचेत रहती हैं कि किसी मुसीबत में न फँसें!”
चन्दर चुपचाप बैठ चाय पीता रहा। आज तक वह जिंदगी को कितना पवित्र मानता रहा था लेकिन जिंदगी कुछ और ही है। जिंदगी अब भी वह है जो सृष्टि के आरम्भ में थी...और दुनिया कितनी चालाक है! कितनी भुलावा देती है! अन्दर से मन में जहर छिपाकर भी होठों पर कैसी अमृतमयी मुसकान झलकाती रहती है! यह बिनती जो इतनी शान्त, संयत और भोली लगती थी, इसमें भी सभी गुन भरे हैं। इस दुनिया में? चन्दर ने जिंदगी को परखने में कितना बड़ा धोखा खाया है।...जिंदगी यह है-मांसलता और प्यास और उसके साथ-साथ अपने को छिपाने की कला।
वह बैठा-बैठा सोचता रहा। सहसा उसने पूछा-
“बिनती, तुम भी देहात में रही हो और सुधा भी। तुम लोगों की जिंदगी में वह सब कभी आया?”
बिनती क्षण-भर चुप रही, फिर बोली, “क्यों, क्या नफरत करोगे सुनकर!”
“नहीं बिनती, जितनी नफरत और अरुचि दिल में आ गयी है उससे ज्यादा आ सकती है भला! बताना चाहो तो बता दो। अब मैं जिंदगी को समझना चाहता हूँ, वास्तविकता के स्तर पर!” चन्दर ने गम्भीरता से पूछा।
“मैंने आपसे कुछ नहीं छिपाया, न अब छिपाऊँगी। पता नहीं क्यों दीदी से भी ज्यादा आप पर विश्वास जमता जा रहा है। सुधा दीदी की जिंदगी में तो यह सब नहीं आ पाया। वे बड़ी विचित्र-सी थीं। सबसे अलग रहती थीं और पढ़तीं और कमल के पोखरे में फूल तोड़ती थीं, बस! मेरी जिंदगी में...”
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