ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“छिः, दूर हटो, सुधा! यह क्या नाटक करती हो! आज तुम बच्ची नहीं हो!” और सुधा को बड़ी रुखाई से परे हटाकर अपने कोट पर से सुधा के हाथ से लगी हुई मिट्टी झाड़ते हुए चन्दर चुपचाप अपने कमरे में चला गया।
सुधा पर जैसे बिजली गिर पड़ी हो। वह पत्थर की तरह खड़ी रही। फिर जैसे लडख़ड़ाती हुई अपने कमरे में गयी और चारपाई पर लेटकर फूट-फूटकर रोने लगी। चन्दर सुधा से नहीं ही बोला। डॉक्टर साहब के जगते ही उनसे बातें करने लगा, शाम को वह साइकिल लेकर घूमने निकल गया। लौटकर ऊपर छत पर चला गया और बिनती को पुकारकर कहा, “अगर तकलीफ न हो तो जरा ऊपर खाना दे जाओ।” बिनती ने थाली लगायी और सुधा से कहा, “लो दीदी! दे आओ!” सुधा ने सिर हिलाकर कहा, “तू ही दे आ! मैं अब कौन रह गयी उनकी।” बिनती के बहुत समझाने पर सुधा ऊपर खाना ले गयी। चन्दर लेटा था गुमसुम। सुधा ने स्टूल खींचकर खाना रखा। चन्दर कुछ नहीं बोला। उसने पानी रखा। चन्दर कुछ नहीं बोला।
“खाओ न!” सुधा ने कहा और एक कौर बनाकर चन्दर को देने लगी।
“तुम जाओ!” चन्दर ने बड़े रूखे स्वर में कहा, “मैं खा लूँगा!”
सुधा ने कौर थाली में रख दिया और चन्दर के पायताने बैठकर बोली, “चन्दर, तुम क्यों नाराज हो, बताओ हमसे क्या पाप हो गया है? पिछले डेढ़ महीने हमने एक-एक क्षण गिन-गिनकर काटे हैं कि कब तुम्हारे पास आएँ। हमें क्या मालूम था कि तुम ऐसे हो गये हो। मुझे जो चाहे सजा दे लो लेकिन ऐसा न करो। तुम तो कुछ भी नहीं समझते।” और सुधा ने चन्दर के पैरों पर सिर रख दिया। चन्दर ने पैर झटक दिये, “सुधा, इन सब बातों से फायदा नहीं है। अब इस तरह की बातें करना और सुनना मैं भूल गया हूँ। कभी इस तरह की बातें करते अच्छा लगता था। अब तो किसी सोहागिन के मुँह से यह शोभा नहीं देता!”
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