ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“बात यह हुई कि पहले तो हम दीदी के साथ पढ़ते थे तब तो मास्टर साहब कुछ नहीं बोलते थे, इधर जबसे हम अकेले पढऩे लगे तब से कविताएँ समझाने के बहाने दुनिया-भर की बातें करते रहे। एक बार स्कन्दगुप्त पढ़ाते-पढ़ाते बड़ी ठंडी साँस लेकर बोले, काश कि आप भी देवसेना बन सकतीं। बड़ा गुस्सा आया मुझे। मन में आया कह दूँ कि मैं तो देवसेना बन जाती लेकिन आप अपना कवि सम्मेलन का पेशा छोड़कर स्कन्दगुप्त कैसे बन पाएँगे। लेकिन फिर मैंने कुछ कहा नहीं। दीदी से सब बात कह दी। दीदी तो हैं ही लापरवाह। कुछ कहा ही नहीं उन्होंने। और मास्टर साहब वैसे अच्छे हैं, पढ़ाते भी अच्छा हैं, लेकिन यह फितूर जाने कैसे उनके दिमाग में चढ़ गया।” बिनती बड़े सहज स्वभाव से बोली।
“लेकिन इधर क्या हुआ?” चन्दर ने पूछा।
“अभी कल आये, एक हाथ में उनके एक मोटी-सी कॉपी थी। दे गये तो देखा वह उनकी कविताओं का संग्रह है और उसका नाम उन्होंने रखा है 'बिनती'। अभी आते होंगे। क्या करें कुछ समझ में नहीं आता। अभी तक दीदी के भरोसे हमने सब छोड़ दिया था। वह पता नहीं कब आएँगी।”
“अच्छा लाओ, वह संग्रह हमें दे दो।” चन्दर ने कहा, “और बिसरिया से कह देना वह चन्दर के हाथ पड़ गया। फिर कल सुबह तुम्हें मजा दिखलाएँगे। लेकिन हाँ, यह पहले बता दो कि तुम्हारा तो कुछ झुकाव नहीं है उधर, वरना बाद में हमें कोसो?” चन्दर ने छेड़ते हुए कहा।
“अरे हाँ, मुसलमान भी हो तो बेहना के संग! कवियों से प्यार लगाकर कौन बवालत पाले!” बिनती ने झेंपते हुए कहा।
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