ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“चुप गिलहरी कहीं की?” सुधा हँस पड़ी, “बहुत बोलना आ गया है!” सुधा ने हँसते हुए बनावटी गुस्से से कहा। फिर सुधा तकिये से टिककर बैठ गयी-”आज गेसू नहीं है। मुझे गेसू की बहुत याद आ रही है।”
“क्यों?”
“इसलिए कि आज उसके कई शेर याद आ रहे हैं। एक दफे उसने सुनाया था-
ये आज फिजा खामोश है क्यों, हर जर्रे को आखिर होश है क्यों?
या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका।'
इसी की अन्तिम पंक्ति है-
मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफाँ भी हमारा हो न सका'!”
“वाह! यह पंक्ति बहुत अच्छी है,” चन्दर ने कहा।
“आज गेसू होती तो बहुत-सी बातें करते!” सुधा बोली, “देखो चन्दर, जिंदगी भी क्या होती है! आदमी क्या सोचता है और क्या हो जाता है। आज से तीन-चार महीने पहले मैंने क्या सोचा था! क्लास-रूम से भागकर हम लोग पेड़ के नीचे लेटकर बातें करते थे, तो मैं हमेशा कहती थी-मैं शादी नहीं करूँगी। पापा को समझा लूँगी। उस दिन क्या मालूम था कि इतनी जल्दी जुए के नीचे गरदन डाल देनी होगी और पापा को भी जीतकर किसी दूसरे से हार जाना होगा। अभी उसकी तय भी नहीं हुई और महीने-भर बाद मेरी...” सुधा थोड़ी देर चुप रही और फिर-”और दूसरी बात उसकी, जो मैंने तुम्हें बतायी थी। उसने कहा था जब किसी के कदम हट जाते हैं सिर के नीचे से, तब मालूम होता है कि हम किसका सपना देख रहे थे। पहले हमें भी नहीं मालूम होता था कि हमारे सिर किसके कदमों पर झुक चुके हैं। याद है? मैंने तुम्हें बताया था, तुमने पूछा था!”
“याद है।” चन्दर ने कहा।
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