ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“नहीं, चन्दर बहुत खुश हैं इसलिए!” और एक गहरी साँस लेकर किताब बन्द कर दी।
“कौन-सी किताब है, सुधा?” चन्दर ने पूछा।
“कुछ नहीं, इस पर उर्दू के कुछ अशआर लिखे हैं जो गेसू ने सुनाये थे।” सुधा बोली।
चन्दर ने बिनती की ओर देखा और कहा, “बिनती, कैलाश तो जैसा है वैसा ही है, लेकिन शंकरबाबू की तारीफ मैं कर नहीं सकता। क्या राय है तुम्हारी?”
“हाँ, है तो सही; दीदी इतनी सुखी रहेंगी कि बस! दीदी, हमें भूल मत जाना, समझीं!” बिनती बोली।
“और हमें भी मत भूलना सुधा!” चन्दर ने सुधा की उदासी दूर करने के लिए छेड़ते हुए कहा।
“हाँ, तुम्हें भूले बिना कैसे काम चलेगा।” सुधा ने और भी गहरी साँस लेते हुए कहा और एक आँसू गालों पर फिसल ही आया।
“अरे पगली, तुम सब कुछ अपने चन्दर के लिए कर रही हो, उसकी आज्ञा मानकर कर रही हो। फिर यह आँसू कैसे? छिः! और यह माला सामने रखे क्या कर रही हो?” चन्दर ने बहलाया।
“माला तो दीदी इसलिए सामने रखे थीं कि बतलाऊँ...बतलाऊँ!” बिनती बोली, “असल में रामायण की कहानी तो सुनी है चन्दर, तुमने? रामचन्द्र ने अपने एक भक्त को मोती की माला दी तो वह उसे दाँत से तोडक़र देख रहा था कि उसके अन्दर रामनाम है या नहीं। सो यह माला सामने रखकर देख रही थीं, इसमें कहीं चन्दर की झलक है या नहीं?”
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