ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
बिनती ने झेंपकर मुँह झुका लिया। बड़ी विचित्र लड़की थी। हमेशा चुप रहती थी और कभी-कभी बोलने की लहर आती तो गुटरगूँ करके घर गुँजा देती थी और जिन दिनों चुप रहती थी उन दिनों ज्यादातर आँख की निगाह, कपोलों की आशनाई या अधरों की मुसकान के द्वारा बातें करती थी। पम्मी बोली, “आपको फूलों से शौक है?”
“हाँ, हाँ” बिनती सिर हिलाकर बोली।
“चन्दर, इन्हें जाकर गुलाब दिखा लाओ। इधर फिर खूब खिले हैं!”
बिनती ने सुधा से कहा, “चलो दीदी।” और चन्दर के साथ बढ़ गयी।
फूलों के बीच में पहुँचकर, बिनती ने चन्दर से कहा, “सुनिए, दीदी को तो जाने क्या होता जा रहा है। बताइए, ऐसे क्या होगा?”
“मैं खुद परेशान हूँ, बिनती! लेकिन पता नहीं कहाँ मन में कौन-सा विश्वास है जो कहता है कि नहीं, सुधा अपने को सँभालना जानती है, अपने मन को सन्तुलित करना जानती है और सुधा सचमुच ही त्याग में ज्यादा गौरवमयी हो सकती है।” इसके बाद चन्दर ने बात टाल दी। वह बिनती से ज्यादा बात करना नहीं चाहता था, सुधा के बारे में।
बिनती ने चन्दर को मौन देखा तो बोली, “एक बात कहें आपसे? मानिएगा!”
“क्या?”
“अगर हमसे कभी कोई अनधिकार चेष्टा हो जाए तो क्षमा कर दीजिएगा, लेकिन आप और दीदी दोनों मुझे इतना चाहते हैं कि हम समझ नहीं पाते कि व्यवहारों को कहाँ सीमित रखूँ!” बिनती ने सिर झुकाये एक फूल को नोचते हुए कहा।
चन्दर ने उसकी ओर देखा, क्षण-भर चुप रहा, फिर बोला, “नहीं बिनती, जब सुधा तुम्हें इतना चाहती है तो तुम हमेशा मुझ पर उतना ही अधिकार समझना जितना सुधा पर।”
उधर पम्मी ने चन्दर के जाते ही सुधा से कहा, “क्या आपकी तबीयत खराब है?”
“नहीं तो।”
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