ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
सुधा चप्पल उतारकर अन्दर आयी। झूमती-इठलाती हुई चली आ रही थी।
“कहो, सेठ स्वार्थीमल!” उसने चन्दर को देखते ही कहा, “सुबह हुई और पकौड़ी की महक लग गयी तुम्हें!” पीढ़ा खींचकर उसके बगल में बैठ गयी और सरकंडा चन्दर के हाथ पर रखते हुए बोली, “लो, यह गन्ना। घर में बो देना। और गँडेरी खाना! अच्छा!” और हाथ बढ़ाकर वह डिबिया उठा ली और बोली, “इसमें क्या है? खोलें या न खोलें?”
“अच्छा, खत तक तो हमारे बिना पूछे खोल लेती हो। इसे पूछ के खोलोगी!”
“अरे हमने सोचा शायद इस डिबिया में पम्मी का दिल बन्द हो। तुम्हारी मित्र है, शायद स्मृति-चिह्नï में वही दे दिया हो।” और सुधा ने डिबिया खोली तो उछल पड़ी, “यह तो उसी निबन्ध पर मिला है जिसका चार्ट तुम बनाये थे!”
“हाँ!”
“तब तो ये हमारा है।” डिबिया अपने वक्ष में छिपाकर सुधा बोली।
“तुम्हारा तो है ही। मैं अपना कब कहता हूँ?” चन्दर ने कहा।
“लगाकर देखें!” और उठकर सुधा चल दी।
“बिनती, दो पकौड़ी तो दो।” और दो पकौड़ियाँ लेकर खाते हुए चन्दर सुधा के कमरे में गया। देखा, सुधा शीशे के सामने खड़ी है और मेडल अपनी साड़ी में लगा रही है। वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। सुधा ने मेडल लगाया और क्षण-भर तनकर देखती रही फिर उसे एक हाथ से वक्ष पर चिपका लिया और मुँह झुकाकर उसे चूम लिया।
“बस, कर दिया न गन्दा उसे!” चन्दर मौका नहीं चूका।
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