ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“नहीं जी, प्राइवेट क्या होगा, और वह भी तुमसे? सोने का मेडल है। मिला है मुझे एक लेख पर।” और चन्दर ने डिब्बा खोलकर दिखला दिया।
“आहा! ये तो बहुत अच्छा है। हमें दे दीजिए।” बिनती बोली।
“क्या करेगी तू?” चन्दर ने हँसकर पूछा।
“अपने आनेवाले जीजाजी के लिए कान के बुन्दे बनवा लेंगे।” बिनती बोली, “अरे हाँ, आपको एक चीज दिखाएँगे।”
“क्या?”
“यह नहीं बताते। देखिएगा तो उछल पडि़एगा।”
“तो दिखाओ न!”
“अभी तो दीदी आ रही होंगी। दीदी के सामने नहीं दिखाएँगे।”
“सुधा से छिपाकर हम कुछ नहीं कर सकते, यह तुम जानती हो।” चन्दर बोला।
“छिपाने की बात थोड़े ही है। देखकर तब उन्हें बता दीजिएगा। वैसे वह खुद ही सुधा दीदी से क्या छिपाते हैं? लो, सुधा दीदी तो आ गयीं...”
चन्दर ने पीछे मुडक़र देखा। सुधा के हाथ में एक लम्बा-सा सरकंडा था और उसे झंडे की तरह फहराती हुई चली आ रही थी। चन्दर हँस पड़ा।
“खिल गये दीदी को देखते ही!” बिनती बोली और एक गरम पकौड़ी चन्दर के ऊपर फेंक दी।
“अरे, बड़ी शैतान हो गयी हो तुम इधर! पाजी कहीं की!” चन्दर बोला।
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