ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“हमारे पैर नहीं छुएँगे क्या?” सुधा ने गम्भीरता से कहा।
“चल पगली! बहुत बदतमीज होती जा रही है!” पापा ने कृत्रिम गुस्से से कहा, “चन्दर! बहुत सिर चढ़ी हो गयी है। जरा दबाकर रखा करो। तुमसे छोटी है कि नहीं?”
“अच्छा पापा, अब आज मिठाई मिलनी चाहिए।” सुधा बोली, “चन्दर ने थीसिस खत्म की है?”
“जरूर, जरूर बेटी!” डॉक्टर शुक्ला ने जेब से दस का नोट निकालकर दे दिया, “जाओ, मिठाई मँगवाकर खाओ तुम लोग।”
सुधा हाथ में नोट लिये उछलते हुए स्टडी रूम में आयी, पीछे-पीछे चन्दर। सुधा रुक गयी और अपने मन में हिसाब लगाते हुए बोली, “दस रुपये पौंड ऊन। एक पौंड में आठ लच्छी। छह लच्छी में एक शाल। बाकी बची दो लच्छी। दो लच्छी में एक स्वेटर। बस एक बिनती का स्वेटर, एक हमारा शाल।”
चन्दर का माथा ठनका। अब मिठाई की उम्मीद नहीं। फिर भी कोशिश करनी चाहिए।
“सुधा, अभी से शाल का क्या करोगी? अभी तो बहुत गरमी है!” चन्दर बोला।
“अबकी जाड़े में तुम्हारा ब्याह होगा तो आखिर हम लोग नयी-नयी चीज का इन्तजाम करें न। अब डॉक्टर हुए, अब डॉक्टरनी आएँगी!” सुधा बोली।
खैर, बहुत मनाने-बहलाने-फुसलाने पर सुधा मिठाई मँगवाने को राजी हुई। जब नौकर मिठाई लेने चला गया तो चन्दर ने चारों ओर देखकर पूछा, “कहाँ गयी बिनती? उसे भी बुलाओ कि अकेले-अकेले खा लोगी!”
“वह पढ़ रही है मास्टर साहब से!”
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