ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“आखिर कौन-सा उपनिषद लिख रही हैं आप? जरा देखें तो!” चन्दर ने किताब खींच ली। टाजिग की इकनॉमिक्स की किताब में एक पूरे पन्ने पर सुधा ने एक बिल्ली बनायी थी और अगर निगाह जरा चूक जाए तो आप कह नहीं सकते थे यह चौरासी लाख योनियों में से किस योनि का जीव है, लेकिन चूँकि सुधा कह रही है कि यह बिल्ली है, इसलिए मानना होगा कि यह बिल्ली ही है।
चन्दर ने सुधा की बाँह पकडक़र कहा, “उठ! आलसी कहीं की, चल उठा ये पोथा! चलके पापा के पैर छू आएँ?”
सुधा चुपचाप उठी और आज्ञाकारी लड़की की तरह मोटी फाइल उठा ली। दरवाजे तक पहुँचकर रुक गयी और चन्दर के कन्धे पर फाइलें टिकाकर बोली, “ऐ चन्दर, तो सच्ची अब तुम डॉक्टर हो जाओगे?”
“और क्या?”
“आहा!” कहकर जो सुधा उछली तो फाइल हाथ से खिसकी और सभी पन्ने जमीन पर।
चन्दर झल्ला गया। उसने गुस्से से लाल होकर एक घूँसा सुधा को मार दिया। “अरे राम रे!” सुधा ने पीठ सीधी करते हुए कहा, “बड़े परोपकारी हो डॉक्टर चन्दर कपूर! हमें बिना थीसिस लिखे डिग्री दे दी! लेकिन बहुत जोर की थी!”
चन्दर हँस पड़ा।
खैर दोनों पापा के पास गये। वे भी लिखकर ही उठे थे और शरबत पी रहे थे। चन्दर ने जाकर कहा, “पूरी हो गयी।” और झुककर पैर छू लिये। उन्होंने चन्दर को सीने से लगाकर कहा, “बस बेटा, अब तुम्हारी तपस्या पूरी हो गयी। अब जुलाई से यूनिवर्सिटी में जरूर आ जाओगे तुम!”
सुधा ने पोथा कोच पर रख दिया और अपने पैर बढ़ाकर खड़ी हो गयी। “ये क्या?” पापा ने पूछा।
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