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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

सुंदर काव्य, महाकाव्य की रचना में घुमक्कड़ी से बहुत प्रेरणा मिल सकती है। उसमें ऐसे पात्र और घटनाएँ मिल सकती हैं, जिन पर हमारे घुमक्कड़ कवि महाकाव्य रच सकते हैं। चौथी शताब्दी का अंत था, जबकि महाकवि कालिदास चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन में अपनी प्रतिभा का चमत्कार दिखा रहे थे। उसी समय कश्मीर के एक विद्वान भिक्षु सुंदरियों की खान तुषार (चीनी तुर्किस्ताकन के उत्तरी भाग) देश की नगरी कूचान (कूचा) में राजा-प्रजा से सम्मानित हो विहार कर रहे थे। कश्मीर उस समय और भी अधिक सौंदर्य का धनी था, और कूचान में तो मानो मानवियाँ नहीं अप्सरायें रहा करती थीं - सभी महाश्वेताएँ, सभी नीलाक्षियाँ, सभी पिंगल केशाएँ और सभी अपने आनन से चंद्र को लजाने वाली। कश्मीरी भिक्षु ने त्रैलोक्य-सुंदरी राजकुमारी को अपना हृदय दे डाला। कूचान में मुक्त वातावरण था, लोग बुद्ध धर्म में भी अपार श्रद्धा रखते, और जीवनरस के आस्वादन में भी पीछे नहीं रहना चाहते थे। दोनों के प्रणय का परिणाम एक सुंदर बालक हुआ, जिसे दुनिया कुमारजीव के नाम से जानती है। कुमारजीव ने पितृभूमि कश्मीर में रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया, फिर मातुल-राजधानी में अपने विद्या के प्रताप से सत्कृत और पूजित हुए। उनकी कीर्ति चीन तक पहुँची। सम्राट के माँगने पर इंकार करने के कारण चीनी सेना ने आक्रमण किया, और अंत में कुमारजीव को साथ ले गई। 401 ई. से 412 ई. के बारह सालों में चीन में रहकर कुमारजीव ने बहुत से संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिनमें बहुत से संस्कृत में लुप्त हो आज भी चीनी में मौजूद हैं। कुमारजीव अपनी साहित्यिक भाषा के लिए चीन के साहित्यकारों में सर्वप्रथम स्थान रखते हैं। कुमारजीव की जीवनी यहाँ लिखना अभिप्रेत नहीं है, बल्कि हमें यह दिखलाना है कि एक कवि प्रतिभा कुमारजीव को लेकर सभी रसों से पूर्ण और भारत और वृहत्तर भारत की महिमा से ओत-प्रोत एक महाकाव्य लिख सकती है। महान घुमक्कड़ गुणवर्मा (431 ई.) भी एक महाकाव्य के नायक हो सकते हैं। कंबोज में जाकर भारतीय संस्कृति और वैदिक धर्म की ध्वजा फहराने वाले माथुर दिवाकर भट्ट का जीवन भी किसी कवि को एक महाकाव्य लिखने की प्रेरणा दे सकता है। इसलिए यह अत्युक्ति नहीं होगी, यदि हम कहें कि घुमक्कड़ की चर्या सरस्वती के आवाहन में भारी सहायक हो सकती है।

हमारा घुमक्कड़ जावा के महाद्वीप में अब भी बच रही अपनी अनेकों सांस्कृतिक निधियों से प्रेरणा लेकर बरोबुदुर पर एक सुंदर काव्य लिख सकता है, तथा “अर्जुन-विवाह”, “कृष्णायन”, “भारतयुद्ध”, “स्मरदहन” जैसे हिंदू जावा के सुंदर काव्यों का काव्यमय अनुवाद में हमारे सामने रख सकता है। यदि कविता के लिए चित्रविचित्र प्राकृतिक दृश्य प्रेरक होते हैं, यदि कविता में उदात्त अद्भुत घटनाएँ प्राण डालती हैं, यदि अपने चारों तरफ फैले विशाल कीर्ति शेष कवि को उल्लसित कर सकते हैं, तो हमारी यह आशा असंभव कल्पना नहीं है कि हमारे तरुण घुमक्कड़ की काव्य‍-प्रतिभा अपनी घुमक्कड़ी के कितने ही दृश्यों से प्रभावित हो वाल्मीकि के कंठ की तरह फूट निकलेगी।

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