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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

पुरानी बातें शायद भूल गई हों, इसलिए अपने वर्तमान युग के महान कवि को देख लीजिए। कवींद्र रवींद्र को केवल काव्यकर्त्ता, उपन्यासकार और नाटक-रचयिता के रूप में ही हम नहीं पाते। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक देन का बहुत अच्छा मूल्यांकन किया था। पश्चिम की चकाचौंध से उनके पैर जमीन से नहीं उखड़े और न हमारे देश की रू़ढ़िवादिता ने उनको अकर्मण्य बनाने में सफलता पाई। भावी भारत के लिए कितनी ही बातों का कवींद्र ने मानदंड स्थापित किया। शांतिनिकेतन में उस समय जो वातावरण उन्होंने तैयार किया था, वह समय से कुछ आगे अवश्य था, किंतु हमारी सांस्कृसतिक धारा से अविच्छिन्न था। उसके महत्व‍ को हम अब समझ सकते हैं, जबकि दिल्ली राजधानी में तितलों और तितलियों का तूफान देखते हैं। कवींद्र ने साहित्यिक क्षेत्र में सारे भारत को स्थायी प्रेरणा दी, जो चिरस्मरणीय रहेगी। लेकिन उनका महान कार्य इतने ही तक सीमित न था। उन्होंने चित्रकला, मूर्तिकला, गीत, नृत्य, वाद्य, अभिनय को न भुला उन्हें भी उचित स्थान पर बैठाया। उनके पास साधन कम थे। संस्थाएँ केवल उच्चादर्श के बल पर ही आगे नहीं बढ़ सकतीं, यद्यपि वह उनकी सफलता के लिए अत्यंत आवश्य्क है। तो भी कवींद्र जो भी साधन जुटा पाते थे, जो भी धन भारत या बाहर से एकत्रित कर पाते थे, उनसे वह नवीन भारत के सर्वांगीण निर्माण की योजना तैयार करने की कोशिश करते थे। शांतिनिकेतन में भारतीय विद्या, भारतीय संस्कृति और भारतीय तत्व ज्ञान के अध्ययन को भी वह भूले नहीं। वृहत्तर भारत पर तो शांतिनिकेतन में जितनी अच्छी और प्रचुर परिणाम में पुस्तकें हैं, वैसी भारत में अन्यत्र कम मिलेंगी। लेकिन रवींद्र यह भी जानते थे कि केवल साहित्य, संगीत और कला से भूखे-नंगे भारत को भोजन-वस्त्र नहीं दिया जा सकता। उन्होंने कृषि और उद्योग-धंधे के विकास की शिक्षा के लिए श्रीनिकेतन स्थापित किया। यह सब काम रवींद्र ने तब आरंभ किया, जबकि भारत के कितने ही बुद्धि-विद्या के ठेकेदार मजे से अंग्रेजों के कृपापात्र रहते, जीवन का आनंद लेते ऐसी कल्पनाओं को व्यर्थ का स्वप्न समझते थे। आश्चर्य तो यह है कि आज हमारे कितने ही राष्ट्रीत नेता अंग्रेजों के इन पिट्ठुओं का स्मारक स्थापित करके कृतज्ञता प्रकट करना चाहते हैं। उसी प्रयाग में चंद्रशेखर आजाद के नहीं, सप्रू के स्मारक की अपील निकाली जा रही है।

रवींद्र हमारे देश के महान कवि ही नहीं थे, बल्कि उन्होंने युग प्रवर्तन में क्रियात्मक भाग लिया। रवींद्र की प्रतिभा इतने व्यापक क्षेत्र में कभी सचेष्ट न होती, यदि उन्होंने आंशिक रूप में घुमक्कड़ी पथ स्वीकार न किया होता। उनकी कृतियों में देश-दर्शन ने कितनी सहायता की, इसे आँकना मुश्किल है, किंतु रवींद्र ने विशाल विश्व को आत्मीय के तौर पर देखा था। किसी को देखकर कहीं उन्हें चकाचौंध नहीं आयी, न किसी को हीन देखकर अवहेलना का भाव आया। यहाँ अवश्य रवींद्र का विशाल भ्रमण सहायक हुआ। रवींद्र की लेखनी में घुमक्कड़ी ने सहायता की, इसे हमें मानना पड़ेगा। और उसी ने उन्हें अपनी महती संस्था को विश्व भारती बनाने की प्रेरणा दी।

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