ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
एक दूसरे मेरे सौभाग्यशाली वृद्ध मित्र हैं, जिन्होंने पुत्रों की चार पीढ़ियों देख ली हैं, पुत्रियों की शायद पाँच पीढ़ी भी हो गई हों। अस्सी बरस के ऊपर हैं। खैरियत यही है कि पैंतीस साल से उन्होंने संन्यास ले रखा है और घर पर कभी-ही-कभी जाते हैं। जब जाते हैं तो उनके वीतराग हृदय में कुफ्त हुए बिना नहीं रहती। वह गांधी-युग के पहले से ही हर चीज में सादगी को पसंद करते थे। और धर्मभीरुता के लिए तो कहना ही क्या? कोई जीविकावृत्ति की आशा न होने पर भी उन्होंने अपने एक पुत्र को संस्कृत पढ़ाया। लेकिन पुत्र के पुत्रों के बारे में मत पूछिए। आजकल के युग के अनुसार पौत्र बड़े सुशील और सदाचारी हैं, किंतु दादा की दृष्टि से देखें तो उन्हें यही कहना पड़ता है - भगवान्! और अब यह सब अधिक न दिखलाओ। उनके घर में साबुन का खर्च बढ़ गया है, तेल-फुलेल का तो होना ही चाहिए, चप्पल और जूते की भी महिलाओं को अत्यंत आवश्य्कता है। और तीसरी पीढ़ी के साहबजादों का चाय के बिना काम नहीं चलता। चाय भी पूरे सेट में होनी चाहिए और ट्रे में रखकर आनी चाहिए। वृद्ध मित्र कह रहे थे - “यह सब फजूलखर्ची है, लेकिन इन्हें समझावे कौन?” और पौत्र कह रहा था - “रहने दीजिये आपके युग का भी हमें ज्ञान है, जब एक या दो साड़ी में स्त्रियाँ जिंदगी बिताती थीं। आज हमारी किसी स्त्री के ट्रंक को खोलकर देख लीजिए, बहुत अच्छी किस्म की आठ-आठ दस-दस साड़ियों से कम किसी के पास नहीं हैं।” वृद्ध की सूखी हड्डियाँ यह कहते हुए कुछ और गर्म हो उठीं - “यह तो और फजूलखर्चीं है।” तीसरी पीढ़ी ने कहा - “जो आपकी पीढ़ी के लिए फजूलखर्ची थी, वह हमारे लिए आवश्यक है। आप की न जाने कई दर्जन पीढ़ियों ने मांस का नाम सुनकर भी राम-राम कहा होगा और हमारी चाय ही ठीक नहीं जमती, यदि हिरण्यगर्भ भगवान तश्तसरी में न पधारें।” वृद्ध दादा के लिए अब बात सुनने की सीमा से बाहर हो रही थी। उनके हटते ही मैं भी साथ देने चला गया। उनके हार्दिक खेद की बात क्या पूछते है! मैंने उनसे कहा - “आप भी जब पिछली शताब्दी के अंत में आर्यसमाजी बने तो सभी गाँव के लोगों ने नास्तिक कहना शुरू किया था। यदि छुआछूत को हटा दिये होते तो निश्चय ही जात में ब्याह-शादी हुक्का-पानी सब बंद हो गया होता। आपने जो उस समय किया था, वही उस समय के लिए भारी क्रांति थी। आपने पत्नी को भी जनेऊ दिलवाया, दोनों बैठकर हवन-संध्या करते थे, लेकिन इसे भी उस समय के सनातनी अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे। जाने दीजिए, जो जिसका जमाना है वही उसकी जवाबदेही को सँभाले।”
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