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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

मनुष्य का यह भारी भरकम स्थान हड्डियों और अस्थायी मांस वाला शरीर ऐसा बना हुआ है कि उसे जराहीन नहीं बनाया जा सकता, इसीलिए मानव मृत्युंजय नहीं हो सकता।

मृत्युंजय की कल्पना गलत है, किंतु सवा सौ-डेढ़ सौ साल जीने वाले आदमी तो हमारे यहाँ भी देखे जाते हैं। बहुत-से प्रौढ़ या वृद्ध जरूर चाहेंगे कि अच्छा होता, यदि हमारी आयु डेढ़ सौ साल की ही हो जाती। वह नहीं समझते कि डेढ़ सौ साल की आयु एकाध आदमी की होती तो दूसरी बात थी, किंतु सारे देश में इतनी आयु होनी देश के लिए तो भारी आफत है। डेढ़ सौ साल की आयु का मतलब है आठ पीढ़ियों तक जीवित रहना। अभी तक हमारे देश की औसत आयु तीस बरस या डेढ़ पीढ़ी है, और हर साल पचास लाख मुँह हमारे देश में बढ़ते जा रहे हैं। यदि लोग आठ पीढ़ी तक जीते रहे, तब तो दो पीढ़ी के भीतर ही हमारे मैदानों और पहाड़ों में सभी जगह घर ही बन जाने पर भी लोगों के रहने के लिए जगह नहीं रह जायगी, खाने कमाने की भूमि की तो बात ही अलग।

यदि इतनी पीढ़ियाँ इकट्ठी हो जायँगी, तो अगली पीढ़ी के लिए जीना दूभर हो जायगा। हम बीस बरस के तरुण-तरुणी की अपने चालीस साल के माता-पिता के साथ मुश्किल से निभते देखते हैं, दोनों के स्वभाव और रुचि में अंतर मालूम होता है। चालीस वाले माता-पिता अपनी तरुण संतान की बेसमझी और उतावलेपन की शिकायत करते हैं, और तरुण उन्हें समय से पिछड़ा मानते हैं। साठ बरस के दादा-दादी की तो बात ही मत पूछिए। पहली और तीसरी पीढ़ी का भारी अंतर बहुत स्पष्ट दिखलाई पड़ता है और वह इसीलिए एक साथ गुजर कर लेते हैं कि साथ अधिक दिन का नहीं होता। तीसरी पीढ़ी में जो भारी परिवर्तन देखा जाता है, उसे आठवीं पीढ़ी से मिलाने पर पता लग जायगा कि मनुष्य की ऐसी चिरजीविता अच्छी नहीं है। चौथी पीढ़ी को देखने के लिए बहुत कम बूढ़े-बूढ़ियाँ जीवित रहते हैं। तीसरी पीढ़ी को भी संसार सँभाले बहुत कम देख पाते हैं। एक बृद्ध को मैं जानता था, वह संस्कृत के धुरंधर विद्वान और ब्राह्मणों के खटकर्म तथा छूआछूत के पक्षपाती थे। उन्होंने अपने पुत्र को भी संस्कृत पढ़ाया और अपनी सारी बातें सिखलाईं, किंतु बाजार-भाव अच्छा होने के कारण अंग्रेजी भी पढ़ाई। अब वह एक बड़े कालेज में अध्यापक हैं। उनके पिता अब नहीं हैं, लेकिन यदि परलोक के भरोसे से वह कभी अपने पुत्र की रसोई की ओर झाँके, जहाँ हिरण्यगर्भ (जिसके भीतर हिरण्य अर्थात् पीला पदार्थ है - अंडा) की अनन्य उपासना हो रही है तो क्या समझेंगे? और अभी तो यह पंडितजी की दूसरी पीढ़ी है। तीसरी पीढ़ी का चार-पाँच बरस का बच्चा हिरण्यगर्म की उपासना के वातावरण में पैदा हुआ है, वह कहाँ तक जायगा, इसको कौन कह सकता है?

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