ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
जैसे नदियाँ अपने नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में एक हो जाती हैं, उसी तरह यह बुद्ध धर्म है। इस धर्म ने घुमक्कड़ों के लिए एसिया के बड़े भाग का दरवाजा खोल दिया है। चीन में जाओ या जापान में, कोरिया में जाओ या कंबोज में, स्याम में जाओ या सिंहल में, तिब्बत में जाओ या मंगोलिया में, सभी जगह आत्मीयता देखने में आती है। लेकिन घुमक्कड़ को यह आत्मीयता किसी संकीर्ण अर्थ में नहीं लेनी चाहिए। उसके लिए चाहे कोई रोमन कैथालिक या ग्रीक संप्रदाय का भिक्षु हो, यदि वह भिक्षुपन की उच्चल सीढ़ी अर्थात प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ के पद पर पहुँच गया है, तो उसे ईसाई साधु को देखकर उतना ही आनंद होगा जितना अपने संप्रदाय के व्यक्ति से मिलकर। उसके बर्ताव में उसी समय बिलकुल अंतर हो जायगा कि कैथालिक साधु तेली का बैल नहीं है और न रेलों तथा जहाजों तक ही गति रखता है। जहाँ उसने अफ्रिका के सहारा, सीनाई पर्वत की यात्रा की कुछ बातें बतलाई कि दोनों में सगापन स्थापित हो गया। साधु सुंदर सिंह के नाम को कौन सम्मान से नहीं लेगा। वह एक ईसाई घुमक्कड़ थे और हिमालय के दुर्गम प्रदेशों में बराबर इधर-से-उधर जाते रहने में रस लेते थे। ऐसा ही किसी यात्रा में उन्होंने कहीं पर अपने शरीर को छोड़ दिया। साधु सुंदर सिंह के ईसाई के भक्त होने में कौन-सा अंतर पड़ जाता है? घुमक्कड़ वस्तुत: धर्म को व्यक्तिगत चीज समझता है।
धर्मों और संप्रदायों का ऊपरी प्रश्न घुमक्कड़ के लिए कोई बात नहीं है। दोनों मध्य एसिया में इस्लाम के पहुँचने के पहले घुमक्कड़ साधुओं का बोलबाला था। देश-देश के घुमक्कड़ वहाँ पहुँचते थे। दक्षिण से भारतीय, पूर्व से चीनी बौद्ध आते, पश्चिम से नेस्तोरी (ईसाई) और मानी-पंथी साधु आते। उनके अलग-अलग मठ और मंदिर भी थे, किंतु साथ ही एक-दूसरे के मंदिर के द्वार भी किसी के लिए बंद नहीं थे। सुदूर उत्तर एसिया की घुमंतू जाति में भी वहां बहुत घूमा करते थे। वह भी एक जगह मिलने पर उसी तरह का दृश्य उपस्थित करते, जैसा कि उस दिन तुंगभद्रा के किनारे देखने में आया था। लेकिन हजार-ग्यारह सौ वर्ष पहले मध्य एसिया में इस्लाम जैसा कट्टर धर्म पहुँच गया। उसने समझाने की जगह तलवार से काम लेना चाहा। मध्य एसिया में ऐसे कई उदाहरण मिले हैं, जब कि बौद्ध, मानी और नेस्तोरी पंथ के साधुओं ने एक छत के नीचे रहकर अपना जीवन बिताया और उसी छत के नीचे इस्लामी तलवार के नीचे अपनी गर्दनें दे दीं। यहाँ तक कि जब पूर्वी मध्य एसिया से बौद्ध साधु भागकर दक्षिण में लदाख के बौद्ध देश में आए, तो वह अपने साथ नेस्तोरी बंधुओं को भी लेते आए। इस महान भ्रातृभाव को इस्लामी मुल्लाओं ने नहीं समझ पाया। आगे चलकर उनमें घुमक्कड़ी का बीज जब जमने लगा, तो सभी धर्मों के साथ सहिष्णुता भी उनके फकीरों में आने लगी।
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