ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
जहाँ तक घुमक्कड़ी करने का सवाल है, स्त्री का उतना ही अधिकार है, जितना पुरुष का। स्त्री क्यों अपने को इतना हीन समझे? पीढ़ी के बाद पीढ़ी आती है, और स्त्री भी पुरुष की तरह ही बदलती रहती है। किसी वक्त स्वतंत्र नारियाँ भारत में रहा करती थीं। उन्हें मनुस्मृति के कहने के अनुसार स्वतंत्रता नहीं मिली थी, यद्यपि कोई-कोई भाई इसके पक्ष में मनुस्मृति के श्लोक को उद्धृत करते हैं-
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:।
लेकिन यह वंचनामात्र है। जिन लोगों ने गला फाड़-फाड़कर कहा - “न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति” उनकी नारी-पूजा भी कुछ दूसरा अर्थ रखती होगी। नारी-पूजा की बात करने वाले एक पुरुष के सामने एक समय मैंने निम्न श्लोक उद्धृत किया -
दर्शने द्विगुणं स्वादु परिवेषे चतुर्गुणम्।
सहभोजे चाष्ट्गुणमित्येवतन्मणनुरब्रवीत्॥
(स्त्री के दर्शन करते हुए यदि भोजन करना हो तो वह स्वाद में दुगुना हो जाता है, यदि वह स्त्री हस्त से परोसे तो चौगुना और यदि साथ बैठकर भोजन करने की कृपा करे तो आठ गुना - ऐसा मनु ने कहा है।)
इस पर जो मनोभाव उनका देखा उससे पता लग गया कि वह नारी-पूजा पर कितना विश्वास रखते हैं। वह पूछ बैठे, यह श्लोक मनुस्मृति के कौन से स्थान का है। वह आसानी से समझ सकते थे कि वह उसी स्थान का हो सकता है जहाँ नारी-पूजा की बात कही गई है, और यह भी आसानी से बतलाया जा सकता था कि न जाने कितने मनु के श्लोक महाभारत आदि में बिखरे हुए हैं, किंतु वर्तमान मनुस्मृति में नहीं मिलते। अस्तुतः हम तो मनु की दुहाई देकर स्त्रियों को अपना स्थान लेने की कभी राय नहीं देंगे।
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