ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
13
हवा के हल्के-हल्के झोंके इधर-उधर बिखर रहे थे। प्रातःकाल का सुहावना समय था। सूर्य की प्रथम किरणों ने अभी-अभी चंद्रपुर की पहाड़ियों को चूमा था।
चंद्रपुर के छोटे-से सुनसान स्टेशन पर दूर पड़े एक बैंच पर एक पक्की उम्र का व्यक्ति बैठा गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। उसका मुख प्रभावशाली था। प्लेटफार्म पर यात्री कम दिखाई दे रहे थे। यह व्यक्ति अपनी दृष्टि भूमि पर गाड़े चींटियों की पंक्ति को देख रहा था। अचानक वह किसी के पैर की ठोकर से चौंक गया। आने वाला सिग्नलमैन था जो उसे देखते ही बोला, ‘जमींदार साहब क्षमा कीजिएगा, जल्दी में था।’
‘कोई बात नहीं रामू। क्यों गाड़ी में कितनी देर है?’
‘बस आने को ही है, सिग्नल ठीक करने जा रहा हूं। आप गाड़ी के इंतजार में....।’
‘हां, गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठा हूं।’
‘क्यों कोई आ रहा है?’
‘मेरी बेटी आज शहर से शिक्षा समाप्त हो जाने पर लौटकर आ रही है। अभी बी.ए. पास किया है उसने।’
‘अच्छा तो आप चलिए अंदर बैठ जाइए, बाबूजी के कमरे में।’
‘नहीं, यहां खुली हवा में ठीक हूं।’
‘अच्छा।’ यह कहकर सिग्नलमैन सिग्नल की ओर चला गया और जमींदार साहब फिर चींटियों की चलती हुई पंक्ति देखने में लग गए। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद वह व्याकुल दृष्टि से सिग्नल की ओर देख लेते। सिग्नल डाउन होने के साथ ही उनकी विकलता भी बढ़ गई। आज चौदह वर्ष के बाद कुसुम चंद्रपुर लौट कर आ रही थी। दीपक सोच रहा था कि ‘कितना अच्छा होता यदि लिली भी आज उसके साथ आज कुसुम को लेने जाती।’
थोड़ी ही देर के बाद दीपक बाबू ने दूर गाड़ी का धुआं देखा और धड़कते हृदय से बैंच पर से उठे। वह संभलकर खड़े हो गए। गाड़ी प्लेटफार्म पर आ पहुंची और धीरे से बारी-बारी सब डिब्बे... दीपक बाबू प्रसन्नता से उस ओर लपके, ‘कुसुम तुम आ गई।’
‘जी मैंने सोचा शायद पत्र न मिला हो।’
‘यह भला कैसे हो सकता है। आओ, नीचे उतर आओ।’
‘और सामान....।’
‘कोचवान, सामान बाहर निकालो।’
‘यह सामने का बिस्तर, ट्रंक और यह टोकरी।’ यह कहकर कुसुम नीचे उतर आई। दीपक बाबू ने अपने हाथ का सहारा दिया। जब लिली पहले-पहले इस स्टेशन पर उतरी थी तब उसे भी उन्होंने इसी प्रकार सहारा देकर उतारा था। दीपक ने देखा कि कुसुम भी बिल्कुल मां पर गई है। वही लंबा कद, सुराहीदार गर्दन, सफेद चेहरा और मोटी-मोटी चंचल आंखें, होंठों पर वही शरारत भरी मुस्कराहट। बिल्कुल अपनी मां की जीती-जागती तस्वीर थी वह।
‘यह आप मेरी ओर इस प्रकार क्या देख रहे हैं?’
‘कुछ नहीं।’ दीपक ने उसके मुख पर से दृष्टि हटाते हुए कहा।
‘नहीं, कोई बात अवश्य है। क्यों, मेरी वेशभूषा अच्छी....।’
‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। समय की गति के साथ बढ़ना तो स्वयं भी मुझे पसंद है। लो गाड़ी चली भी गई और हमें पता भी न लगा। चलो, सामान बाहर ले चलो।’ दीपक ने कोचवान से कहा।
‘आओ कुसुम।’
दोनों द्वार की ओर बढ़े। स्टेशन मास्टर ने हाथ में टिकट लेते हुए कहा, ‘तो यह है आपकी बिटिया जो शहर में शिक्षा पा रही थी। भगवान इसकी आयु बनाए रखे।’
दोनों स्टेशन से बाहर पहुंचे। एक सुंदर फिटन स्टेशन के बाहर खड़ी थी। कुसुम उसे देखते ही बोली, ‘यह कब ली बाबा?’
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