ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
शंकर ने इस अवधि में दो-चार बार दीपक से मिलने का प्रयत्न किया परंतु दीपक ने उससे बात करना अस्वीकार कर दिया। लिली के पत्र भी शंकर के पास आते थे ताकि उसे अपने बच्चों का समाचार मिलता रहे। लिली और शंकर के बीच जो पत्र-व्यवहार होता था, उसका मुनीमजी के द्वारा दीपक को पता लगा गया। वह यह सुनकर जल उठता।
लिली बार-बार शंकर को लिखती कि वह किसी प्रकार दीपक को समझाए कि वह उस बालक का जीवन क्यों नष्ट कर रहा है परंतु शंकर विवश था।
दीपक घृणा के प्रवाह में पड़कर बिल्कुल अंधा हो चुका था। वह यह न समझ सका कि घृणा का पौधा जो वह बड़ा कर रहा है, एक दिन उसे ही ले डूबेगा। बुरी संगत और जान-बूझकर दी गई ढील के कारण रंजन बिगड़ता गया। छोटी आयु में भी उसने पास के गांवों के जुए के अड्डे छान मारे। कई-कई दिन वह घर से बाहर रहता। अभी वह पंद्रह वर्ष का ही था कि उसकी गणना बदमाशों में होने लगी।
दीपक छुट्टियों में भी कुसुम को घर न बुलाता। वह उसे वहीं से कहीं और सैर के लिए ले जाता और फिर वापस बोर्डिंग में छोड़ जाता। जब कभी वह रंजन के बारे में पूछती तो यही कहकर टाल देता कि वह उसकी अनुपस्थिति में जमीनों का ध्यान रख रहा है।
दीपक के देखते-देखते रंजन काफी बिगड़ गया और उसे यह जानकर संतोष-सा हुआ।
दीपक को थोड़ा होश उस दिन आया जब उसे सूचना मिली कि उसकी सेफ की नकली चाबी बनवाकर कई सौ रुपया निकल गया है। उसने रंजन से इसके बारे में पूछा तो उसने यही उत्तर दिया, जरूरत थी, इसलिए ले गया। दीपक ने उसका यह साहस देखकर उसे बैंतो से मारा परंतु रंजन पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। दीपक ने रंजन का सब खर्च इत्यादि बंद कर दिया, परंतु एक दिन मुनीमजी रुपया लेकर घर लौट थे तो रास्ते में ही रंजन ने पिस्तौल से धमकाकर सब रुपया छीन लिया।
दीपक का माथा ठनका। अब उसे अपनी भूल का पछतावा होने लगा। प्रतिदिन कोई-न-कोई नई बात हो जाती जो उसे चिंतित रखने के लिए पर्याप्त थी। रंजन रात को देर से घर लौटता और बहुत सवेरे ही घर से निकल जाता। उसका कोई पता न चलता कि वह कहां जाता है, कहां बैठता है और क्या करता है।
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