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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564
आईएसबीएन :9781613013137

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

बरसात की एक तूफानी रात थी। बादल गरज रहे थे। दीपक अपने कमरे में सो रहा था। दूसरे कमरे में लिली खिड़की में बैठी चुपचाप कुछ सोच रही थी। वह बहुत उदास थी। दीपक द्वारा लगाए गए इस आरोप ने उसे असीम दुःख पहुंचाया था। उसका हृदय रो रहा था परंतु आंखों में एक भी आंसू न था। लगता था कि वह सब आंसू पी चुकी हैं और आंखें पथरा चुकी हैं। वह पथराई आंखों से कभी बाहर तूफान को देखती और कभी पालने में पड़े नन्हें बालक को देखती।

लिली ने बरसात के सात दिन और सात रातें इसी प्रकार ऐसे ही बैठे बिता दी। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से इतनी घृणा कर सकता है, वह यह न जानती थी। उसके सामने बार-बार मुंडेर का वह दृश्य आता और दीपक काले कपड़े पहने उसे मृत्यु का निमंत्रण देता दिखाई देता। वह यह देख मुस्करा देती। अब उसे ऐसी बातें भयभीत न कर सकती थीँ।

एक रात जब दीपक अपने कमरे में बैठा था तो उसने लिली की आवाज सुनी। वह चौंक पड़ा। लिली कह रही थी, ‘मैं कल बंबई जा रही हूं।’ दीपक ने मुड़कर देखा, लिली निर्भय होकर उसके सामने खड़ी थी। दीपक चुपचाप उसे देखता रहा। वह फिर बोली, ‘यदि आप चाहें तो कुसुम को भी साथ ले जाऊं?’

‘परंतु अचानक यह क्या सूझा तुम्हें?’

‘मैं आज्ञा लेने नहीं, सूचना देने आई हूं।’

दीपक एकटक उसके मुख की ओर देखता रहा। वह अनुभव कर रहा था कि अब उसे लिली को रोकने का कोई अधिकार नहीं और न ही उसमें अब इतना साहस है। दीपक को मौन देखकर लिली ने फिर पूछा, ‘तो आपने कुसुम के बारे में क्या सोचा?’

कुछ देर चुप रहकर दीपक बोला, ‘वह तुम्हारे साथ नहीं जा सकती।’ यह कहकर दीपक सामने की खिड़की की ओर देखने लगा। लिली वहां से जा चुकी थी।

लिली ने दूसरे दिन रात की गाड़ी से जाने का निश्चय किया। जब जाने का समय आया तो वह दीपक से मिलने गई। दीपक अपने कमरे में अकेला बैठा मानों इसी समय की प्रतीक्षा कर रहा था। लिली अंदर आई, तो उठ खड़ा हुआ। लिली बोली, ‘तो मैं जा रही हूं।’ उसने एक अटैची केस मेज पर रखते हुए कहा, ‘ये मेरे गहने हैं। जब कुसुम बड़ी हो और उसका विवाह करने लगें तो मेरी ओर से यह कह देना कि तुम्हारी मां ने मरते समय यह तुम्हारे लिए दिए थे।’ यह कहकर लिली उस ओर बढ़ी जिधर कुसुम सो रही थी। यह अच्छा हुआ कि कुसुम इस समय सो रही है। नहीं तो मुझे इतनी सरलता से न जाने देती। यह कहते ही उसने कुसुम को चूम लिया।

‘घोड़ा गाड़ी नीचे आ गई है बीबीजी।’ हरिया ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।

‘अच्छा, तुम सामान रखो, मैं आती हूं।’ यह कहकर वह बरामदे की ओर बढ़ी और अंतिम बार दीपक की ओर देखा। दीपक हैरान था कि यह सब होने पर भी लिली की आंखों में एक भी आंसू न था। वह लिली की आवाज सुनकर चौंक पड़ा। वह कह रही थी, मैं जा रही हूं।

दीपक मूर्तिवत खड़ा रहा। उसने सोचा लोगों से जाकर क्या कहेगी। लड़की साथ क्यों नहीं लाई। और लड़का-लड़की होती तो मेरा क्या बिगाड़ लेती, परंतु हो सकता है कि कल जब यह बालक बंबई के वातावरण में बड़ा हो जाएगा तो मेरे लिए एक दिन भय का कारण बन सकता है। हो सकता है कि लिली अपना बदला लेने के लिए उससे कुछ काम ले और अगर न भी ले तो जब इसे पता लगेगा कि इसकी मां क्यों चंद्रपुर से चली गई तो स्वयं बदला लेने के लिए अवश्य आएगा। अचानक इस प्रकार के विचार उसके हृदय में उठने लगे। परंतु वह करता भी क्या। लिली की आवाज ने उसे फिर चौंका दिया, मैंने कहा, ‘मैं जा रही हूं।’

‘ओह, अच्छा, परंतु।’

‘क्यों?’

‘इस बच्चे को तुम साथ नहीं ले जा सकती।’

‘परंतु क्यों?’

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